Friday 16 March 2018

हे देवी हमें माफ़ करना

संसार में रहने वाला प्रत्येक आदमी किसी न किसी आस्था से जुड़ा है। लोगों ने अपने -अपने तरीके से अपनी आस्था को जिन्दा रखा है। सबकी मान्यताएं अलग है और इच्छाएं तो खैर अलग है ही। कोई प्रतिदिन पूजा करता है और कोई साल में कुछेक बार। एक व्यक्ति मूर्ति में भगवान को खोजता है तो दूसरा निराकार की आराधना करता है। हर किसी का राह सही है और एक ही लक्ष्य को ले जाता है, ऐसा हमारे मनीषियों और महान लोगो ने कहा है। 
लोगों ने न जाने कितने वर्षों से अपनी आस्था को जिन्दा रखा है और परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाये रखा है पर समय के साथ आये सामाजिक और आर्थिक बदलाव ने बहुत हद तक प्रभावित किया है पूजा पद्धतियों को। उन्ही में से एक है मूर्ति बनाने के लिए प्रयोग होने वाली सामग्री। मैं नहीं जानता की सबसे पहले किस चीज का उपयोग किया गया था मूर्ति बनाने में पर निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि वो सामग्री प्रकृति के अनमोल खजाने से ही लिया गया होगा और पूजन होने के बाद प्रकृति को ही समर्पित कर दिया गया होगा,आखिर ऐसा कोई कारण भी तो नहीं है कि हमारे पूर्वज प्रकृति को नुकसान पहुंचाने का सोचे भी। परन्तु आज का जीवनशैली बहुत बदल चुकी  है।लोग स्वकेन्द्रित होते जा रहे हैं और आत्ममुग्ध भीउन्हें फर्क नहीं पड़ता कि उनके क्रियाकलापों से पर्यावरण और प्रकृति को कितना नुकसान होता है और इसका प्रभाव क्या होगा।आधुनिकता के नाम पर जो भी मिला उसे प्रसाद की तरह स्वीकार किया बिना यह सोचे कि प्रसाद में जहर भी हो सकता है। परिणाम सबके सामने है, पर्यावरण को जितना नुकसान हज़ारों वर्षों में नहीं  हुआ उतना पिछले दो सौ सालों में हुआ और सबसे अधिक पिछले पचास सालों में। आज रसायनों की इतनी बड़ी खेप हर दिन फैक्ट्रियों से निकलता है और उनका अंत होता है तालाबों,नदियों और खेतों में जो की समाज को जीवंत बनाये रखने का काम करती है। मूर्ति कला भी इस से कहाँ अछूता रह पाया है ? मूर्ति बनाने में प्रयोग होने वाली सामग्रियों में बहुत बदलाव हुआ है, लोग इसके बारे में बिना सोचे कि मूर्ति किस चीज की बनी है उसी हर्षोल्लास से पूजा करते है जैसे वो पहले किया करते थे और उसी उत्साह से विसर्जन भी कर आते है फिर सालभर के लिए भूल जाते है। यह सही नहीं है, यह नहीं होना चाहिए। 
कुछ दिनों पहले दैनिक भास्कर में छपे एक तस्वीर ने मेरा ध्यान खींचा और मैं काफी देर तक सोचता रहा कि हमने पूजा किसकी की और क्यों की? तस्वीर मध्य प्रदेश के देवास जिले के कालूखेड़ी नामक तालाब की है जो गर्मी आने के पहले ही सूख चुकी है पर चिंतित करने वाली बात ये है कि लगभग छह महीने पहले विसर्जित देवी की एक दर्जन से अधिक प्रतिमाएं जहाँ-तहाँ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़ी है। ये प्रतिमाएं पीओपी से बनी थी न की मिटटी से इसलिए गल नहीं पायी और शायद गलेगी भी नहीं। जो सड़ा है वो है हमलोगों की सोच और मूर्ति बनाने में प्रयुक्त सामग्री का चुनाव।मिटटी से बनाने के बजाये पीओपी का प्रयोग हमारी नासमझी तो दिखाता ही है साथ ही कुछ प्रश्न छोड़ जाते है जेहन में कि क्या हम तालाबों के बदले अपने घर में ही नहीं विसर्जित कर सकते है मूर्तियों को? तालाबों और नदियों को भी हमने माँ का दर्जा दिया है तो फिर इस तरह का बर्ताव क्यों ?
हमने देवी का सम्मान करना चाहा पर अपमान कर बैठे, हे देवी हमें माफ़ करना !



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