Sunday, 28 March 2021

बिहारीपन पर एक टिप्पणी मेरी ओर से

 



लोगों ने हर चीज को अपने हिसाब से बदलने का स्वभाव बना रखा है, खैर इस पर कोई क्या कर सकता है जो आप खुद ही नहीं चाहे की प्रगति हो और दिखावा भी करें कि समाज का विकास हो तो संभव है की दूध से दही तो बन जाए किंतु घी निकालना मुश्किल है।

लोगों ने बिहार को एक अलग ही मानसिकता से ग्रसित प्रदेश मान लिया है बिहारी होना अब गर्व का बात तो है किंतु यह एक अलग ही रूप लेता नजर आ रहा है।
खैर यह सब बहुत बड़ी बातें हैं किंतु पिछले कुछ दिनों के घटनाओं से मैं थोड़ा अप्रसन्न हूं। लेकिन मेरे अकेले के अप्रसन्न होने से क्या हो जायेगा? 11 करोड़ से ऊपर की जनसंख्या है बिहार की एक आध हजार लोग अप्रसन्न है भी तो कोई बड़ी बात नहीं । लेकिन इन घटनाओं की वजह से बिहारी समाज का असली चेहरा बाहर वालों के बीच में आ रहा है और वह सोचते हैं कुत्ता का पूंछ टेढा का टेढा ही रहेगा।
भागलपुर विश्वविद्यालय में एक प्रोफ़ेसर को स्थानीय गुंडों ने या कहूं प्रगतिशील लोगों ने अकारण ही पीट दिया हैरत की बात यह है कि यह सब बिहार बंद के नाम पर किया गया है और बंद का सबसे बड़ा समर्थक विश्वविद्यालय के छात्र ही होते है किंतु अगर विश्वविद्यालय बंद का समर्थन नहीं कर रहा तो समझिए कि बंद का कारण सही नहीं है या सही से समझ नहीं पा रहे हैं। वहां पर उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह बंद का कारण समझाएं और उन्हें साथ में ले ना कि अहिंसा का प्रयोग कर माहौल को और बिगाड़े। खैर उन्हें समझाना मतलब गोइठा में घी सुखाना है लेकिन बिहार के अन्य लोग क्यों चुप है इस मामले में?
बिहार के 38 जिलों में दो-तीन जिले ही थोड़ा सा राजनीति और समाज को साथ लेकर आगे बढ़ रहे हैं बाकी सब तो खाने कमाने में ही व्यस्त हैं और उन जिलों में भागलपुर का नाम आता है भागलपुर विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर अगर मुंबई से नौकरी छोड़ कर के पढ़ाने आ रहे हैं तो समझिए कि समाज में बदलाव की बयार आई है किंतु उस प्रोफेसर के साथ ऐसा बर्ताव होने के बाद भी अगर लोग चुप हैं तो समझिए कि समाज भी दिखावा करने में माहिर है जिधर ज्यादा फायदा उधर का समर्थन बंद हो या विधानसभा में हो-हल्ला वे अपने स्तर पर तय करते हैं कि किस को समर्थन देना है चलिए यह भी ठीक है लेकिन एक बात तय मानिए कि यह सब बिहार की छवि को और बिहार के भविष्य को दांव पर लगाता है।
प्रशांत

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