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Friday, 10 July 2020

कोरोना वायरस के चपेट में अब गांव भी


जब मैं यह सब लिख रहा हूं तब मुझे ध्यान आया कि आज से 3 महीने पहले मैं इस महामारी को कितना मजाक में ले रहा था। मैं क्या, मेरे आस पास लगभग हर कोई वायरस से होने वाले खतरों से अनजान बनने का हर संभव प्रयास कर रहा था। हर दूसरी बात में कोरोना से संबंधित मजाक शामिल था। मानो कोरोनावायरस न हुआ, हंसी ठिठोली का एक टॉपिक हो गया। इसमें दोष केवल हमारा भी नहीं था, जिस तरह से इसकी सूचना हम जैसे गांव वासियों तक फैली वह भी कुछ हद तक हास्यास्पद पर ही था। सीरियस मैटर पर किसी ने ध्यान देना उचित समझा भी नहीं। कोई चीन को कोसने में लगा हुआ था तो कोई सरकार को। बहुत से लोग थाली- घंटे बजवाने को लेकर आपस में उलझे हुए थे, लॉकडाउन तो हंसी मजाक का डोज ही लेकर आया था। लोग वास्तविक उद्देश्य को बिल्कुल ही भूल बैठे। "सोशल मीडिया और खाली समय" इन दो चीजों ने तो लोगों के उर्वर मस्तिष्क को नए-नए ज्ञान लिखने और आपस में साझा करके चर्चा करने को प्रेरित किया (प्रेरित करने से ज्यादा उचित शायद हौसला अफजाई करना रहेगा क्योंकि लोग कल्पनाशीलता के हदें पार करने लगे थे) सरकार के तरफ से भी कोई विश्वसनीय एक्शन नहीं लिया गया, केवल प्रशासन की चुस्ती दिखाने का मौका को छोड़कर। ऐसे समय में कुछ संवेदनशील लोग इस बात की चिंता करने लगे कि गरीब लोग खाएंगे क्या और प्रवासियों को होने वाली परेशानियों को कैसे कम किया जा सके ? मीडिया (खासकर टेलीविजन) अलग ही बौखलाहट में था। तरह-तरह के दावों के साथ रोज नए विशेषज्ञ अपनी राय जाहिर कर रहे थे। पत्रकार भी दक्षिण-वाम/सरकार-जनता/ विपक्ष-पक्ष मैं इतना व्यस्त हुए कि वे भूल गए कि दर्शक गण का भी अपना दिमाग होता है। दर्शकों ने भी विशेषज्ञों की बहुत सी बातों पर अमल करना शुरू किया। ऐसे में खबरें आई कि साबुन से हाथ धोते रहने से संक्रमण का खतरा कम होगा और मास्क पहनकर रहने से बचाव संभव है। लोगों ने सब कुछ किया, इसमें कोई शक नहीं पर हम जैसे लोग आखिर कब तक घर में समय काटते? धीरे-धीरे लोग महामारी को मजाक समझ ही बैठे। गौर करें पहले इस पर मजाक बनाया जा रहा था अब इसे ही मजाक समझा गया।



करीब तीसरे लॉकडाउन के शुरू होने तक नवादा जैसे जिले में गिने-चुने केस ही मिले थे और यह प्रमाणित थे। जिस इलाके में कोरोना संक्रमित मिलता उस पूरे इलाके को सील किया जाने लगा पर फिर भी जनसंख्या का बहुत ही नगण्य प्रतिशत लोग संक्रमित थे। मुंबई, दिल्ली जैसे महानगर में हालात कुछ और थी पर गांव सुरक्षित थे। ग्रामीण सुरक्षित थे, यहां तक कि शहर से आ रहे प्रवासी जिन्होंने बहुत कष्ट झेला और क्वारंटाइन सेंटर में सुविधाओं के अभाव में रहे वह भी संतुष्ट थे अपने गांव की खैरियत सुनकर। लोगों ने आपस में मिलना जुलना कम कर दिया, यहाँ तक की महापर्व छठ भी घरों में मना लिया जिसे प्रकृति से जुड़ा रहना था। इन सब के बीच कुछ लोगों को पैसा कमाने का जरिया भी मिला, सरकारी तंत्र के साथ मिलकर यह लोग भ्रष्टाचार में लगे। चाहे राशन वितरण में हो या फिर साबुन मास्क वितरण में। जिनकी जैसी मंशा थी वैसा वे कीये। किंतु सबसे अहम बात जो इन दिनों मैंने महसूस की कि बिहार जैसे राज्य में जहां उंगली पर गिने जा सकने की संख्या में बढ़िया हॉस्पिटल होने के बाद भी लोग डरे नहीं। बल्कि भरोसा जताया सिस्टम पर, डॉक्टरों और नर्सों पर। मैं तो ताज्जुब में था कि जहां सांप काटने पर अस्पताल मुहैया नहीं, जहां महिलाओं और बच्चों की जान केवल इसलिए चली जाती है क्योंकि प्रसव के वक्त उचित सुविधाएं जिसमें स्वच्छता और बिजली भी शामिल है नहीं मिल पाती है । वह राज्य कैसे हैंडल करेगा कोरोना को?? लेकिन भगवान भरोसे सबका जीवन चल ही रहा था और आगे भी चलेगा यह मानकर शायद मैं शांत हूं और लोग भी चुप है। वैसे भी बिहार जैसे राज्य में (केवल बिहार ही क्यों?) अन्य राज्यों में भी कोरोनावायरस बहुत कम किए जा रहे थे और आंकड़ों का हेरफेर जारी था। ईमानदारी तो कब का तेल लेने गई थी सो अभी तक लौटी नहीं । हम जैसे लोगों को यह बात मालूम कब से है।





राज्य की खस्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था पर मैंने पहले भी लिखा है और फिर भी लोग सवाल करने के बजाय चापलूसी और चमचागिरी में लगे हुए हैं। मैं इससे ज्यादा कर नहीं सकता हूं।
ऐसे में जब कुछ लोगों से बात करता था तो उनमें से अधिकतर लोग डरे सहमे थे,कुछ तो भगवान से मना रहे थे कि यह सब जल्द खत्म हो जाए और वापस जीवन पटरी पर लौट जाए। पटरी पर लौटने की बात से याद आया की देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उत्तर भी गई थी। हां पर्यावरण में काफी सुधार महसूस की गई। जो भी हो अभी तक गांव बचे हुए थे कोरोना से। लेकिन अभी जब मैं लिख रहा हूं तो मैं भी डरा हुआ हूं, यह डर मौत का नहीं है। यह कोरोनावायरस का अजीब सा खौफ है। कोरोना के चलते प्रशासन और लोगों की बदलते व्यवहार का खौफ है। अभी बारिश हो रहा है पर हल्का बुखार भी मुझे और मुझ से जुड़े लोगों को डरा दे रहा है। पापा को टाइफाइड हुआ है, पर लक्षणों से कोरोना लगा इसलिए कोरोनावायरस टेस्ट भी करवा लिए, लेकिन टेस्ट रिजल्ट आने तक जो बेचैनी मैंने देखी उसका खौफ है। जिस तरह से अफवाह सुनकर लोगों के व्यवहार में परिवर्तन आया उसका खौफ है। पापा 5-6 दिनों से एक रूम में रह रहे हैं, जो कि उनके स्वभाव के विपरीत है और फिर भी अपनी और औरों के सुरक्षा का ख्याल से हर निर्देश का पालन कर रहे हैं। किंतु मैं लापरवाह रहा हूं अभी तक क्योंकि अनुशासन की तिलांजलि मैंने कब का दे दिया था। 4 दिन पहले की खबर है स्टेट बैंक के कर्मचारी संक्रमित पाए गए, बैंक बंद है। बाजार के कुछ लोग भी संक्रमित हैं। बहुत से ग्रामीणों में अजीब सा भय है। कोरोना अब गांवों में फैल चुका है। अब देश सुरक्षित नहीं है ।





सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं,हाथ तो खैर पहले से खड़ा था पर अब भरोसा भी नहीं रहा। मिलकर लड़ेंगे- मिलकर जीतेंगे यह बातें अब बेमानी लगती है। प्रशासन को सख्त निर्देश मिला है कि वे इसे फैलने से रोके और यह निर्देश तब मिला है जब यह हर जगह फैल चुका है। राज्य भर में मास्क पहनना अनिवार्य कर दिया गया है, पुलिस को सख्त निर्देश दिया गया है कि जो भी बिना मास्क का मिले उसे दो मास्क दिया जाए और जुर्माना वसूला जाय। इधर देख रहा हूं कि पुलिस जुर्माना वसूलने में इतना व्यस्त है कि रसीद काट कर देना भूल जा रही है मास्क का तो कुछ अता पता ही नहीं है। इस महामारी में यह लोग पैसों को दांत से पकड़ना नहीं भूल रहे हैं पर यह जरूर चाहते हैं कि हर आदमी अपना काम धंधा छोड़ कर घर में जरूर बैठ जाए। शायद इसीलिए तो दूध बेचने जा रही है एक औरत को डंडे से पीट दिया था पुलिस ने लॉकडाउन में। खैर मास्क, सैनिटाइजर, और साबुन बनाने वाले भी अवसर देख रहे हैं और सरकार तो इस बात पर आंखें गड़ाए हुए हैं कि कब सरकारी गोदाम में गेहूं चावल सड़े उसे सैनिटाइजर बनाकर पोस्ट ऑफिस के माध्यम से बेचा जाए। इन सब के बावजूद लोगों ने यह पूछना छोड़ दिया है कि दवाई कब बनेगी और कौन बना रहा है? गांव के अस्पताल में अभी तक सुविधा क्यों नहीं पहुंची?
आज से कुछ जिलों में फिर से लॉकडाउन किया गया है।डीएम व अन्य अफसर क्या सोच रहे हैं यह मालूम नहीं पर लौकडाउन बढ़ने के पूरे आसार दिख रहे हैं। मैं यह नहीं पूछ रहा कि लॉकडाउन खोला क्यों?वह शायद हर कोई जान रहा है पर यह जरूर पूछ रहा हूं कि हमारे जान के साथ ऐसा भद्दा मजाक क्यों??

आपका प्रशांत

Wednesday, 20 May 2020

#DreamLibrary : ट्रक पर पुस्तकें

आज से मैं दुनिया में विभिन्न पुस्तकालयों पर एक ब्लॉग सीरीज शुरू करने जा रहा हूं जिसे मैं ढिबरी पर #DreamLibrary के नाम से पोस्ट करता रहूंगा। पोस्ट का लिंक विभिन्न सोशल मीडिया पर भी डालने का प्रयास करूंगा। मैं आशा करूंगा कि आप सब पूरी दिलचस्पी के साथ पढेेंगें और अपने friend circle में शेयर करेंगे और बच्चों के ग्रुप में इसके बारे में जानकारी देंगे।

चित्र साभार www.nhkworld.com से


आज की कहानी है जापान के एहीमें प्रांत के कैपिटल मात्सूयामा शहर से । यह जापान के शिकोकू द्वीप पर स्थित है। कहानी है एक ऐसे लाइब्रेरी की जोकि एक ट्रक के रूप में प्रत्येक सप्ताह अपने प्रिय पाठकों तक पुस्तकें पहुंचाती है। हम कह सकते हैं कि यह चलंत पुस्तकालय अर्थात Mobile library है। मात्सूयामां के आस-पास के गांव में कोई भी पब्लिक लाइब्रेरी नहीं है। इसके अनेक कारण है किंतु एक ट्रक जिसमें करीब 2800 पुस्तकें हैं वह प्रत्येक गांव में हर सप्ताह एक निश्चित समय पर पिछले 45 वर्षों से जा रहा है। जैसे कोई ट्रेन अपने समय पर आकर यात्रियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है ठीक वैसे ही बस अंतर इतना है कि यहां ट्रेन ना होकर पुस्तकों का भंडार लोगों के लिए नियत समय पर पहुंचता है। पुस्तकें भी हर तरह की नई-पुरानी, इतिहास और विज्ञान, बच्चों के लिए स्टोरी बुक्स, विभिन्न विषयों के पिक्चर बुक्स, फिक्शन, मंगा,नॉनफिक्शन आदि। यानी संपूर्ण कलेक्शन।

हमारे लिए हैरत करने की बात यह है की सबसे ज्यादा एक्टिव मेंबर्स गांव के बुजुर्ग और 7 वर्ष से भी कम आयु के बच्चे हैं। बच्चे 10-12 पुस्तकें एक साथ ले जाते हैं और फिर अगले सप्ताह पढ़कर सही सलामत वापस करके नई पुस्तकें ले जाते हैं।ट्रक के आने के पहले ही कई बुजुर्ग नियत स्थान पर खड़े हो जाते हैं और ट्रक के आने का इंतजार करना उनके लिए खुशी का माध्यम बनता है। कुछ पुस्तक प्रेमियों के लिए यह ट्रक तो आपस में मिलने का बहाना भी बन गया है। वे उस स्थान पर ट्रक के आने के एक घंटा पहले आकर दुनिया जहां की बातें करते हैं,उन किताबों की कहानियां सुनाते हैं एक दूसरे को जो भी पिछले सप्ताह पढ़ चुके होते हैं। जीवंत और सजीव। कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई भी वहां नहीं पहुंचता पर फिर भी ट्रक अपने नियत समय पर हर सप्ताह जरूर पहुंचता है।
हम आशा करते हैं की यह ऐसा ही चलता रहे।


इसी तरह की एक मुहीम इआता प्रीफेक्चर में भी चल रही है आपका मित्र वीडियो देख सकते हैं



तो कैसा लगा आप सब को यह जानकारी।
आप सोशल मीडिया पर इसे शेयर करें #DreamLibrary और #AbdulKalamLibraryRajauli के साथ। अगर आपके पास भी किसी लाइब्रेरी की ऐसे ही कहानी हो तो हमें मैसेज/ईमेल करना ना भूलें। email - kalamlibraryrajauli@gmail.com

हमारा प्रयास है की रजौली और आसपास के क्षेत्रों में अब्दुल कलाम लाइब्रेरी एक जीवंत जगह बने जहां पर हर कोई आकर शांति से पढ़ सकें। आपका सहयोग जरूरी है।
लाइब्रेरी का फेसबुक पेज -
https://www.facebook.com/abdulkalamlibrary/

किसी भी जानकारी के लिए जुड़े रहिए मुझसे
आपका प्रशांत ❣️

Saturday, 18 April 2020

रजौली संगत से जुडी यादें

रजौली संगत: पीछे की तस्वीर 

आज सुबह जब मैं सब्जी लाने जा रहा था तो न जाने क्या मन में हुआ मैंने फोन निकाला और संगत की फोटो खींच ली एक नहीं तीन चार फोटो। सब्जी लेकर सीधे घर आने के बजाय मैं देवी अस्थान होते हुए संगत का बाहर से दीदार करते हुए आया। अभी एक घंटा पहले जब मैंने लिखना शुरू किया तो ध्यान हुआ कि आज विश्व विरासत दिवस मनाया जा रहा है, यह मात्र इत्तेफाक है या कुछ और यह तो मालूम नहीं पर रजौली संगत के बगल से मैं जब भी गुजरता हूं तो एक स्वप्न मेरे मन में अवश्य आता है कि किसी दिन यह संगत भी एक विरासत के रूप में देश भर के लोगों के लिए उपलब्ध होगा। हालांकि यह कपोल कल्पना नहीं है क्योंकि मैं जानता हूं भले ही लोग अभी इस संगत के रखरखाव के प्रति उतने सचेत नहीं हो परंतु यह संगत अवश्य लोगों को आपस में जोड़ने की शक्ति रखता है। जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो संगत आना जाना लगा रहता था उन्हीं दिनों मैंने कई जानकारियां जुटाई इसके बारे में विकिपीडिया पर कुछ संशोधन भी किया है मैंने अखबारों में लगातार छोटे-छोटे लेख लिख कर भेजे थे एकाद छपा भी है। फेसबुक और ट्विटर पर तस्वीरें डाली है सरकारों से इसके रखरखाव की मांग की है, गूगल मैप्स से शुरुआती तस्वीरों में मैंने ही डाली थी यह सोचकर कि जब नालंदा का खंडहर प्रसिद्ध है तो कम से कम यह संगत रजौली का नाम ऊंचा करेगा। दोस्तों से तो इस संबंध में अनगिनत बातें की है मैंने मैंने वैसे यह केवल मेरी यादों में नहीं है मैंने संगत को जिया है आप पूछ सकते हैं कि कोई कैसे जी सकता है एक स्थल को तो मैं कहूंगा कि जैसे मगहिया पान में लाली छुपी होती है वैसे ही मेरे साथ संगत बसा है। हां इधर कुछ वर्षों में पता नहीं क्यों संगत की ओर जाता नहीं था पर आज वो यादें फिर से ताजा हो गई है दिल से टीस फिर उठी है कि कैसे रजौली के इतने सारे बेटों के रहते हुए संगत अपनी बदहाली पर इतने दिनों से रोता आया है इसकी छत गिरने लगी है दीवारों में दरार आ चुकी है आसपास के जमीन को लोग हथियाने में लगे हुए हैं और हर जगह गंदगी का अंबार लगा हुआ है कुआं भरने वाला है और दरवाजे कमजोर होने लगी है जो कुछ भी बाबा श्रीचंद के नाम पर था वह तो कब का भुलाया जा चुका है कीमती वस्तुएं पता नहीं किसने चोरी की है गुरु नानक देव और उनके प्रथम सुपुत्र श्री चंद बाबा का विचार तो शायद ही लोग कभी अपना पाए हो, हैरानी तो इस बात की है कि संगत को भी पराया ही समझा है लोगों ने।
इस संगत का अपना ही इतिहास रहा है और कई कीवदंतिया भी प्रचलित है इसके बारे में जैसे बचपन में हम बच्चे आपस में बातें करते थे की बहुत बड़े शेर पर राजा की सवारी निकलती थी संगत के मुख्य द्वार से हालांकि अब लगता है कि यह सच तो कतई नहीं हो सकता होगा पर फिर भी शान ओ शौकत का एक छोटा सा हिस्सा तो जरूर रहा होगा।

आपका प्रशांत



Friday, 6 April 2018

रजौली परमाणु बिजलीघर के विरोध में पहला कदम




पिछले कई वर्षों से सरकारी और गैर-सरकारी सूत्रों से कहा जा रहा है कि 'रजौली' में परमाणु बिजलीघर बनेगा। जब कभी भी ऐसी खबर आती थी तो लोगों में कई तरह की चर्चाएं चल पड़ती थी। जैसे कि परमाणु बिजलीघर बनना चाहिए या नहीं। बनने से क्या फायदे हैं और क्या नुकसान इन बातों पर चर्चा केंद्रित होता था। लोगों को कई बार "कब बनेगा?" यह पूछते हुए सुना है मैंने। कैसे बनेगा और क्यों बनना चाहिए इन बातों पर शायद ही किसी का ध्यान जाता था। आमतौर पर लोग इसे चुनावी घोषणा या वादा समझते थे और फिर भूल जाते थे परन्तु अख़बारों में रह रहकर इससे सम्बंधित खबरे छपती रहती थी, लोग भी बड़े ध्यान से एक-एक शब्द पढ़ते, चर्चाएं करते। राजनीति से जोड़ने वालों की कमी तो खैर पुरे इलाके में नहीं है।कुछ दिनों बाद फिर वही दुनियादारी में लोग मग्न हो जाते। 
पॉवरप्लांट 'रजौली' को देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रसिद्धी दे रहा है। मैंने कई बार गौर किया है कि जब भी कोई मुझसे मेरा पता पूछता है और मैं रजौली बताता हूँ तो उनमे से कुछ अगला सवाल डालते हैं 'परमाणु पॉवरप्लांट' वाला रजौली न ! इसपर मेरा उत्तर उतना उत्साहजनक नहीं होता है पर हाँ जरूर कहता हूँ। इसका कारण समय के साथ अलग अलग रहा है। 
मुझे याद है शायद 2011-12 की बात थी 'रजौली' में न्युक्लीअर पॉवरप्लांट बनाने के लिए लगातार बिहार सरकार और केंद्र सरकार में बातें हो रही थी। उस समय स्थानीय लोग काफी रुची ले रहे थे। उसके बाद फिर कई महीनो तक कोई बात नहीं हुई। बीच-बीच में फिर बातें होने लगी पर मैंने उतना ध्यान नहीं दिया। कभी खबर आती कि अधिकारियों का एक समूह क्षेत्र का जायजा लेने आया है तो कभी खबर आती की फुलवरीआ डैम में पानी की कमी के कारण प्रोजेक्ट लटक गया है। फलाना- ढेकाना और पता नहीं क्या-क्या।  
आज जब मैंने फिर से इससे सम्बंधित खबर पढ़ी कि  "न्यूक्लियर पॉवर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआईएल) ने नवादा में परमाणु बिजलीघर स्थापित करने का प्रस्ताव दिया है। इस परियोजना पर करीब 70 हजार करोड़ रुपए का निवेश होगा। उद्योग मंत्री जय कुमार सिंह ने कहा कि राज्य सरकार ने इसके लिए एक हजार एकड़ जमीन चिह्नित कर दी है।एनपीसीआईएल के प्रस्ताव पर ऊर्जा विभाग मंथन कर रहा है और जल्द ही निर्णय लिया जाएगा।" तो लगा कि जो खिचड़ी बहुत दिनों से दिमाग में पक रही थी वह तैयार है। तुरंत समझ में आया कि आखिर क्यों ये सब हो रहा था और कब तक हो सकता है। दिमाग में गुबार की तरह कई प्रश्न उठे और अगले ही क्षण उनका उत्तर भी मिल गया। मेरे लोगों को कितना फायदा होगा और कितना नुकसान इसका अंदाजा भी लगाया। नफा तो खैर सबको दिख रहा है पर नुकसान पर लोग आखें मुंड ले रहे है। मैं रजौली का बेटा हूँ और बचपन से ह्रदय में रजौली बसा है। मैं जानता हूँ कि मेरे रजौली का नुकसान हरगिज नहीं होना चाहिए, नफा हो या न हो। बेचैन मन से यह सब लिख रहा हूँ, कोशिश करूँगा कि कभी शांत मन से इसे आसान भाषा में लिखूं और क्षेत्र के हर आदमी तक पंहुचा दूँ। लेकिन तब तक जो इसे पढ़ रहे हैं उनसे निवेदन है कि वे मेरा साथ दें रजौली में परमाणु बिजलीघर के विरोध हेतु। 

आपका   

प्रशांत 
(prashantsamajik@gmail.com)