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Monday, 26 March 2018

चिपको आंदोलन की 45वी वर्षगांठ


  किताबों में पढ़ा था कि हिमालय के गढ़वाल इलाके में ( अब उत्तराखण्ड राज्य में ) चिपको आंदोलन हुआ था। कब हुआ था और कैसे हुआ था, इसपर लेख केंद्रित किया गया था परन्तु "क्यों हुआ था" इस बात को एक-दो पंक्ति में सीमित कर दिया गया। हम भी बच्चे थे, परीक्षा के खातिर रट लेते थे और फिर भूल जाते। लेकिन ऐसा नहीं है कि बालमन सुलगता नहीं था ये सब पढ़कर कि उन लालची लोगों ने महिलाओं के ऊपर साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग किया था। सीने में आग लगती थी तब भी जब पढता था कि अपने जंगल को बचने के लिए महिलाओं ने अपनी जान की परवाह नहीं कर पेड़ों से चिपककर ललकारा उन्हें कि ' कुल्हाड़ी चलेगी तो पहले हमपर चलेगी।' वह आग आज भी जलती है सीने में। यह जानते हुए कि हमारे पहाड़ों को,जंगलों को लगातार काटा जा रहा है।  वैध या अवैध - यह मुद्दा ही नहीं है मेरे लिए। 'चिपको आंदोलन' के पहले जो जंगल वैध रूप से काटे गए अब अवैध रूप से काटे जाने लगा है,लेकिन जंगल तो कट रहा है। उन्हें हक़ ही क्या है हमारे जंगल पर कुल्हाड़ी चलाने की ?

एक आज का दिन है और एक वह दिन था। चालाकी से वन विभाग और कॉन्ट्रैक्टरों ने गांव के मर्दों को सरकारी कार्यालय बुला लिया था और सामाजिक कार्यकर्ताओं को चर्चा के बहाने दूसरी जगह। जंगल को काटने जब लोग आये तो केवल महिलाएं बची थी। उन्होंने क्या सोचा कि वे जंगल काट कर ले जायेंगे और महिलाये कुछ न कर सकेगी? महिलाओं की संख्या शायद 21 थी पर उन्होंने जंगल के पेड़ों को घेर लिया और सरकार व कॉन्ट्रैक्टरों को झुकने को मजबूर कर दिया।
30 साल बाद खींची गयी उन महिलाओं की तस्वीर जो सबसे पहले लड़ी थी। (By Ceti, CC BY-SA )
यह छोटी सी विजय थी पर इसने पुरे विश्व को पर्यावरण को एक नए नजरिये से देखने को मजबूर किया। लोगों को पहली बार एहसास हुआ कि पर्यावरण संरक्षण क्यों करना चाहिए।धीरे-धीरे यह आंदोलन देश के अन्य राज्यों में भी फैला। भारत सरकार ने  वन संरक्षण के लिए एक छोटी सी समीति बनाई। 1973 में हुआ यह आंदोलन एक दिन में सफल नहीं हुआ, इसके पीछे था एक दशक से भी अधिक का मेहनत और लगभग दो सौ से अधिक सालों से जारी संघर्ष।
गौरा देवी 
गढ़वाल में वन विभाग का जो रवैया था वो कमोबेश आज पुरे भारत में है। उन्होंने हमारे वनों पर कब्ज़ा कर रखा है, यह कहकर कि हम रखवाले हैं पर इनके ही लालच से रोज हमारे जंगल काटे जा रहे है। चिपको आंदोलन  उद्देश्य था -
 क्या है जंगल के उपकार ? मिटटी, पानी, और बयार 
मिटटी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार। 
इसे उस वक़्त कि ग्रामीण अनपढ़ महिलाओं ने बखूबी समझ लिया था पर शायद आज के पढ़े-लिखे लोगों के दिमाग में ये बात नहीं जा रही है। 1970  में अलकनंदा नदी में आयी उस भयानक बाढ़ ने लोगों को समझा दिया था कि गलती कहाँ हुई पर आज जब छोटी-बड़ी नदियां मरने के कगार पर है, लोग समझ नहीं पा रहे हैं। अफसरों और लालची व्यापारियों के मिलीभगत से आज भी पेड़ काटने का काम अनवरत जारी है। क्या फिर हम पेड़ों के लिए लड़ नहीं सकते ?