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Sunday, 28 March 2021

बिहारीपन पर एक टिप्पणी मेरी ओर से

 



लोगों ने हर चीज को अपने हिसाब से बदलने का स्वभाव बना रखा है, खैर इस पर कोई क्या कर सकता है जो आप खुद ही नहीं चाहे की प्रगति हो और दिखावा भी करें कि समाज का विकास हो तो संभव है की दूध से दही तो बन जाए किंतु घी निकालना मुश्किल है।

लोगों ने बिहार को एक अलग ही मानसिकता से ग्रसित प्रदेश मान लिया है बिहारी होना अब गर्व का बात तो है किंतु यह एक अलग ही रूप लेता नजर आ रहा है।
खैर यह सब बहुत बड़ी बातें हैं किंतु पिछले कुछ दिनों के घटनाओं से मैं थोड़ा अप्रसन्न हूं। लेकिन मेरे अकेले के अप्रसन्न होने से क्या हो जायेगा? 11 करोड़ से ऊपर की जनसंख्या है बिहार की एक आध हजार लोग अप्रसन्न है भी तो कोई बड़ी बात नहीं । लेकिन इन घटनाओं की वजह से बिहारी समाज का असली चेहरा बाहर वालों के बीच में आ रहा है और वह सोचते हैं कुत्ता का पूंछ टेढा का टेढा ही रहेगा।
भागलपुर विश्वविद्यालय में एक प्रोफ़ेसर को स्थानीय गुंडों ने या कहूं प्रगतिशील लोगों ने अकारण ही पीट दिया हैरत की बात यह है कि यह सब बिहार बंद के नाम पर किया गया है और बंद का सबसे बड़ा समर्थक विश्वविद्यालय के छात्र ही होते है किंतु अगर विश्वविद्यालय बंद का समर्थन नहीं कर रहा तो समझिए कि बंद का कारण सही नहीं है या सही से समझ नहीं पा रहे हैं। वहां पर उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह बंद का कारण समझाएं और उन्हें साथ में ले ना कि अहिंसा का प्रयोग कर माहौल को और बिगाड़े। खैर उन्हें समझाना मतलब गोइठा में घी सुखाना है लेकिन बिहार के अन्य लोग क्यों चुप है इस मामले में?
बिहार के 38 जिलों में दो-तीन जिले ही थोड़ा सा राजनीति और समाज को साथ लेकर आगे बढ़ रहे हैं बाकी सब तो खाने कमाने में ही व्यस्त हैं और उन जिलों में भागलपुर का नाम आता है भागलपुर विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर अगर मुंबई से नौकरी छोड़ कर के पढ़ाने आ रहे हैं तो समझिए कि समाज में बदलाव की बयार आई है किंतु उस प्रोफेसर के साथ ऐसा बर्ताव होने के बाद भी अगर लोग चुप हैं तो समझिए कि समाज भी दिखावा करने में माहिर है जिधर ज्यादा फायदा उधर का समर्थन बंद हो या विधानसभा में हो-हल्ला वे अपने स्तर पर तय करते हैं कि किस को समर्थन देना है चलिए यह भी ठीक है लेकिन एक बात तय मानिए कि यह सब बिहार की छवि को और बिहार के भविष्य को दांव पर लगाता है।
प्रशांत

Friday, 10 July 2020

कोरोना वायरस के चपेट में अब गांव भी


जब मैं यह सब लिख रहा हूं तब मुझे ध्यान आया कि आज से 3 महीने पहले मैं इस महामारी को कितना मजाक में ले रहा था। मैं क्या, मेरे आस पास लगभग हर कोई वायरस से होने वाले खतरों से अनजान बनने का हर संभव प्रयास कर रहा था। हर दूसरी बात में कोरोना से संबंधित मजाक शामिल था। मानो कोरोनावायरस न हुआ, हंसी ठिठोली का एक टॉपिक हो गया। इसमें दोष केवल हमारा भी नहीं था, जिस तरह से इसकी सूचना हम जैसे गांव वासियों तक फैली वह भी कुछ हद तक हास्यास्पद पर ही था। सीरियस मैटर पर किसी ने ध्यान देना उचित समझा भी नहीं। कोई चीन को कोसने में लगा हुआ था तो कोई सरकार को। बहुत से लोग थाली- घंटे बजवाने को लेकर आपस में उलझे हुए थे, लॉकडाउन तो हंसी मजाक का डोज ही लेकर आया था। लोग वास्तविक उद्देश्य को बिल्कुल ही भूल बैठे। "सोशल मीडिया और खाली समय" इन दो चीजों ने तो लोगों के उर्वर मस्तिष्क को नए-नए ज्ञान लिखने और आपस में साझा करके चर्चा करने को प्रेरित किया (प्रेरित करने से ज्यादा उचित शायद हौसला अफजाई करना रहेगा क्योंकि लोग कल्पनाशीलता के हदें पार करने लगे थे) सरकार के तरफ से भी कोई विश्वसनीय एक्शन नहीं लिया गया, केवल प्रशासन की चुस्ती दिखाने का मौका को छोड़कर। ऐसे समय में कुछ संवेदनशील लोग इस बात की चिंता करने लगे कि गरीब लोग खाएंगे क्या और प्रवासियों को होने वाली परेशानियों को कैसे कम किया जा सके ? मीडिया (खासकर टेलीविजन) अलग ही बौखलाहट में था। तरह-तरह के दावों के साथ रोज नए विशेषज्ञ अपनी राय जाहिर कर रहे थे। पत्रकार भी दक्षिण-वाम/सरकार-जनता/ विपक्ष-पक्ष मैं इतना व्यस्त हुए कि वे भूल गए कि दर्शक गण का भी अपना दिमाग होता है। दर्शकों ने भी विशेषज्ञों की बहुत सी बातों पर अमल करना शुरू किया। ऐसे में खबरें आई कि साबुन से हाथ धोते रहने से संक्रमण का खतरा कम होगा और मास्क पहनकर रहने से बचाव संभव है। लोगों ने सब कुछ किया, इसमें कोई शक नहीं पर हम जैसे लोग आखिर कब तक घर में समय काटते? धीरे-धीरे लोग महामारी को मजाक समझ ही बैठे। गौर करें पहले इस पर मजाक बनाया जा रहा था अब इसे ही मजाक समझा गया।



करीब तीसरे लॉकडाउन के शुरू होने तक नवादा जैसे जिले में गिने-चुने केस ही मिले थे और यह प्रमाणित थे। जिस इलाके में कोरोना संक्रमित मिलता उस पूरे इलाके को सील किया जाने लगा पर फिर भी जनसंख्या का बहुत ही नगण्य प्रतिशत लोग संक्रमित थे। मुंबई, दिल्ली जैसे महानगर में हालात कुछ और थी पर गांव सुरक्षित थे। ग्रामीण सुरक्षित थे, यहां तक कि शहर से आ रहे प्रवासी जिन्होंने बहुत कष्ट झेला और क्वारंटाइन सेंटर में सुविधाओं के अभाव में रहे वह भी संतुष्ट थे अपने गांव की खैरियत सुनकर। लोगों ने आपस में मिलना जुलना कम कर दिया, यहाँ तक की महापर्व छठ भी घरों में मना लिया जिसे प्रकृति से जुड़ा रहना था। इन सब के बीच कुछ लोगों को पैसा कमाने का जरिया भी मिला, सरकारी तंत्र के साथ मिलकर यह लोग भ्रष्टाचार में लगे। चाहे राशन वितरण में हो या फिर साबुन मास्क वितरण में। जिनकी जैसी मंशा थी वैसा वे कीये। किंतु सबसे अहम बात जो इन दिनों मैंने महसूस की कि बिहार जैसे राज्य में जहां उंगली पर गिने जा सकने की संख्या में बढ़िया हॉस्पिटल होने के बाद भी लोग डरे नहीं। बल्कि भरोसा जताया सिस्टम पर, डॉक्टरों और नर्सों पर। मैं तो ताज्जुब में था कि जहां सांप काटने पर अस्पताल मुहैया नहीं, जहां महिलाओं और बच्चों की जान केवल इसलिए चली जाती है क्योंकि प्रसव के वक्त उचित सुविधाएं जिसमें स्वच्छता और बिजली भी शामिल है नहीं मिल पाती है । वह राज्य कैसे हैंडल करेगा कोरोना को?? लेकिन भगवान भरोसे सबका जीवन चल ही रहा था और आगे भी चलेगा यह मानकर शायद मैं शांत हूं और लोग भी चुप है। वैसे भी बिहार जैसे राज्य में (केवल बिहार ही क्यों?) अन्य राज्यों में भी कोरोनावायरस बहुत कम किए जा रहे थे और आंकड़ों का हेरफेर जारी था। ईमानदारी तो कब का तेल लेने गई थी सो अभी तक लौटी नहीं । हम जैसे लोगों को यह बात मालूम कब से है।





राज्य की खस्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था पर मैंने पहले भी लिखा है और फिर भी लोग सवाल करने के बजाय चापलूसी और चमचागिरी में लगे हुए हैं। मैं इससे ज्यादा कर नहीं सकता हूं।
ऐसे में जब कुछ लोगों से बात करता था तो उनमें से अधिकतर लोग डरे सहमे थे,कुछ तो भगवान से मना रहे थे कि यह सब जल्द खत्म हो जाए और वापस जीवन पटरी पर लौट जाए। पटरी पर लौटने की बात से याद आया की देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उत्तर भी गई थी। हां पर्यावरण में काफी सुधार महसूस की गई। जो भी हो अभी तक गांव बचे हुए थे कोरोना से। लेकिन अभी जब मैं लिख रहा हूं तो मैं भी डरा हुआ हूं, यह डर मौत का नहीं है। यह कोरोनावायरस का अजीब सा खौफ है। कोरोना के चलते प्रशासन और लोगों की बदलते व्यवहार का खौफ है। अभी बारिश हो रहा है पर हल्का बुखार भी मुझे और मुझ से जुड़े लोगों को डरा दे रहा है। पापा को टाइफाइड हुआ है, पर लक्षणों से कोरोना लगा इसलिए कोरोनावायरस टेस्ट भी करवा लिए, लेकिन टेस्ट रिजल्ट आने तक जो बेचैनी मैंने देखी उसका खौफ है। जिस तरह से अफवाह सुनकर लोगों के व्यवहार में परिवर्तन आया उसका खौफ है। पापा 5-6 दिनों से एक रूम में रह रहे हैं, जो कि उनके स्वभाव के विपरीत है और फिर भी अपनी और औरों के सुरक्षा का ख्याल से हर निर्देश का पालन कर रहे हैं। किंतु मैं लापरवाह रहा हूं अभी तक क्योंकि अनुशासन की तिलांजलि मैंने कब का दे दिया था। 4 दिन पहले की खबर है स्टेट बैंक के कर्मचारी संक्रमित पाए गए, बैंक बंद है। बाजार के कुछ लोग भी संक्रमित हैं। बहुत से ग्रामीणों में अजीब सा भय है। कोरोना अब गांवों में फैल चुका है। अब देश सुरक्षित नहीं है ।





सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं,हाथ तो खैर पहले से खड़ा था पर अब भरोसा भी नहीं रहा। मिलकर लड़ेंगे- मिलकर जीतेंगे यह बातें अब बेमानी लगती है। प्रशासन को सख्त निर्देश मिला है कि वे इसे फैलने से रोके और यह निर्देश तब मिला है जब यह हर जगह फैल चुका है। राज्य भर में मास्क पहनना अनिवार्य कर दिया गया है, पुलिस को सख्त निर्देश दिया गया है कि जो भी बिना मास्क का मिले उसे दो मास्क दिया जाए और जुर्माना वसूला जाय। इधर देख रहा हूं कि पुलिस जुर्माना वसूलने में इतना व्यस्त है कि रसीद काट कर देना भूल जा रही है मास्क का तो कुछ अता पता ही नहीं है। इस महामारी में यह लोग पैसों को दांत से पकड़ना नहीं भूल रहे हैं पर यह जरूर चाहते हैं कि हर आदमी अपना काम धंधा छोड़ कर घर में जरूर बैठ जाए। शायद इसीलिए तो दूध बेचने जा रही है एक औरत को डंडे से पीट दिया था पुलिस ने लॉकडाउन में। खैर मास्क, सैनिटाइजर, और साबुन बनाने वाले भी अवसर देख रहे हैं और सरकार तो इस बात पर आंखें गड़ाए हुए हैं कि कब सरकारी गोदाम में गेहूं चावल सड़े उसे सैनिटाइजर बनाकर पोस्ट ऑफिस के माध्यम से बेचा जाए। इन सब के बावजूद लोगों ने यह पूछना छोड़ दिया है कि दवाई कब बनेगी और कौन बना रहा है? गांव के अस्पताल में अभी तक सुविधा क्यों नहीं पहुंची?
आज से कुछ जिलों में फिर से लॉकडाउन किया गया है।डीएम व अन्य अफसर क्या सोच रहे हैं यह मालूम नहीं पर लौकडाउन बढ़ने के पूरे आसार दिख रहे हैं। मैं यह नहीं पूछ रहा कि लॉकडाउन खोला क्यों?वह शायद हर कोई जान रहा है पर यह जरूर पूछ रहा हूं कि हमारे जान के साथ ऐसा भद्दा मजाक क्यों??

आपका प्रशांत

Tuesday, 24 March 2020

जंग: कोरोना और बिहार

प्रतीकात्मक तस्वीर 

बिहार जिसे अभी तक बीमारू राज्यों में शुमार किया जाता रहा है या कहूँ सबसे ऊपर रखा जाता रहा है वह भी अछूता नहीं है कोरोना की दहशत से। आधिकारिक सूत्रों  के अनुसार कल शाम तक 3 लोगों की मृत्यु  ( बिहार में ) हुई इस बीमारी की वजह से।  ऐसे में मन में संदेह उठना लाजमी है कि अगर यह संख्या अचानक से बढ़ने (जैसा की स्टेज 3 के बारे में कहा जा रहा है ) लगे तो क्या बिहार (सरकार और लोग ) इसे थाम लेने की क्षमता रखता है ? राज्य की जनसँख्या करीब 12 करोड़ है और प्रति 29000 नागरिक पर एक डॉक्टर है, 8600 लोगों पर एक बेड है वह कैसे और कितनी तैयारी कर पाया है इस महामारी से लड़ाई का?बिहार में कोरोना से सबसे पहली मौत PMCH में हुई और मौत के बाद पता चला की वह व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव था, तब तक ना जाने कितने लोग असावधानी की वजह से संक्रमित हो चुके होंगे (यह केवल अनुमान नहीं हैं ),
गया में तो एक व्यक्ति को हॉस्पिटल से ले जाकर चिता पर लेटाया जा चूका था तब टेस्ट के लिए सैंपल लिए गए।  ऐसा इसलिए भी क्यूंकि जहाँ भारत के अन्य राज्यों में COVID -19 की 2 से 3 टेस्ट सेण्टर बनाये जा चुके है उसके मुकाबले सूबे में अभी तक केवल एक ही टेस्ट सेण्टर बन पाया है वह भी RMRI में। इसकी एक वजह टेस्ट किट की कमी  है, 100 से 150 की संख्या में टेस्ट हुए हैं जो एकदम नगण्य है।

संभव हो हम सोचते हैं कि युद्ध में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है पर क्या केवल शहीद होने के लिए भी तैयारी नहीं होनी चाहिए ? पिछले साल की बात है एक अज्ञात बीमारी ने सूबे के मुजफ्फरपुर जिले में दस्तक दी, जबतक इसका नामकरण हुआ तबतक जिले के कई नौनिहालों की जान जा चुकी थी। बिहार के अस्पताल अव्यवस्थित तो पहले से ही थे, गरीब माताओं की चीख-बुखार से वे और गूंज उठे। जब तक दिल्ली की विशेषज्ञों की टीम इसकी जाँच करने पहुंची तब तक हमारे हुक्मरानों और लोगों ने लीची को दोष देना उचित समझा। खैर हमें तो अभी तक पता नहीं चल पाया की चमकी बुखार ने मिडिया और समाज के उच्च वर्गों का ध्यान क्यों नहीं खिंचा पर इतना तो जरूर पता चल गया कि चिकित्सीय क्षेत्र में बिहार भगवान भरोसे ज्यादा है, महामारी और आपदा झेलने का दम तो बिहार के पास खैर है ही नहीं। ऐसे में अगर लोग घरों में बैठकर COVID -19 से बचने के उपाय ( हाथ धोना ) करे नहीं तो क्या करेगा?

राज्य के नामी सरकारी अस्पतालों की हालत भी सबसे छुपी नहीं है। जिला अस्पतालों को तो छोड़ ही दे हम।  ऐसे में प्राइवेट अस्पतालों की ओर  देखना तो पाप ही होगा जबतक रुपया नमक गंगाजल पैकेट में न हो।
बिहार में धनाढ्य लोगों की संख्या बहुत ही कम है। जो बिहारी है वो न केवल प्रति व्यक्ति आय कम पाते है बल्कि शिक्षा और जागरूकता  भी उतना ही मिल पाता है। ऐसा नहीं है कि जनता कर्फ्यू का पालन बिहार ने नहीं किया है, मुझे तो ऐसा लगता है कि शाम पांच बजे सबसे अधिक आवाजें भी इस राज्य से ही आयी होगी, भले अधिकतर बिहारी यह भी नहीं जान पाएं हो कि ऐसा वह क्यों कर रहे है। गांवों में देर शाम तक कानाफूसी होती रही कि शायद कोरोना से लड़ने का सबसे बेहतरीन तरीका यही था। निश्चित तौर पर तरीका तो यही था पर जो मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहे थे उनके धन्यवाद ज्ञापन के लिए न कि विजय में फूल जाने के लिए। कुछ लोगों ने तो पटाखें तक फोड़े,उससे कोई दिक्कत हमें नहीं होनी चाहिए। हमें  दिक्कत तो इस बात से होनी चाहिए कि वे लोग नहीं जानते थे कि वे क्या कर रहे है ? कारण जो भी हो पर अगर  निदान मिलेगा ऐसा  मानकर घर में अनिश्चितकाल तक बैठे रहना बिहार के लिए सबसे बड़ी बेवकूफी होगी ?
WHO के वेबसाइट का स्क्रीनशॉट 

ऐसे समय में जब COVID -19 विश्व के 200 से अधिक देशों को अपनी चपेट में ले चुका है और उसमे भी इटली , अमेरिका जैसे विकसित देश इससे लड़ने में अभी तक विफल रहे तो 130 करोड़ की आबादी वाला भारत और उसमे भी हर चीज को मजाक में लेनेवाला बिहार की इस युद्ध (कोरोना के विरूद्ध ) की क्या रणनीति है और किन मोर्चों पर कितनी तैयारी है यह बात अगर हर सिपाही को न पता हो तो क्या हमें डरना नहीं चाहिए ? युद्ध की बात चली है तो कई और बातें जो इसे जितने में निर्णायक होती है उंप्पर भी हलकी चर्चा करना चाहिए। सबसे जरुरी तो यह है कि दुश्मन की कितनी जानकारी हमारे पास है ? दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि हर सिपाही को अपने नायक पर भरोसा होना चाहिए और उन्हें मालूम  कि  वे आखिर लड़ क्यों रहे है ? तीसरी महत्वपूर्ण  बात यह है कि युद्ध को समाप्त करने की क्या रणनीति है और कितना संसाधन (दवाई ,भोजन आदि ) का प्रयोग उसमे होगा ?
बिहार के मामले में भी हम बात करें तो यह हम अभी तो बिलकुल भी नहीं कह सकते है कि बिहार COVID-19 से लड़ने को तैयार है  कोई और विकल्प नहीं है एवं आत्मसमर्पण हम कर नहीं सकते तो इतना तो अवश्य होना चाहिए कि अब तैयारियां युधःस्तर पर ही हो। परन्तु शायद सरकार और प्रशासन अभी भी मुस्तैद नहीं हो पायी ही। आप हरेक सिपाही को बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं दे सकते है पर बन्दुक तो अवश्य दिया जाना चाहिए। परसो खबर आयी कि मास्क और PPE कीट की कमी की वजह से बिहार के एक प्रसिद्द अस्पताल के डॉक्टरों ने ICU बंद कर हड़ताल कर दिया। ऐसा तो नहीं होना चाहिए था पर हुआ और शायद आगे भी होता रहेगा जब तक कि हरेक सिपाही अपने नायक से सकारात्मक जवाब तालाब न करे। डॉक्टरों और नर्सों तक के भय अगर सरकार  कर पाएगी तो आम जन का क्या हाल होगा ? 
WHO ने COVID -19 को 11 मार्च को महामारी घोषित  कर दिया था पर उससे करीब दो महीने पहले ही इसे वैश्विक मेडिकल इमरजेंसी  घोषित भी किया था। संभावित युद्ध की जानकारी हर सिपाही को नहीं होती है यह सच है पर सरकार और उसकी इंटेलिजेंस टीम क्या इतने दिनों से सो रही थी कि युद्ध के मुहाने पर आने के बाद तैयारियां शुरू की गयी ?
बिहार में सभी अस्पतालों में पर्याप्त सुविधाएँ नहीं है, बहुतों में तो डॉक्टर और मुलभुत दवाइयां तक अनुपलब्ध है, ऐसा नहीं है कि यह जानकारी अभी पता चली बल्कि कई सालों  से ऐसा ही हाल है पर फिर भी सरकारी महकमा पता नहीं किस दम्भ में ऐंठा रहता कि सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करा पाती है। सर्दी,खासी हो तो बिहारी बर्दाश्त करते है,बच्चों की बीमारियां गांव का कोई झोलाछाप डॉक्टर (मैं ऐसा उन्हें नहीं मान सकता क्यूंकि उनके बदौलत कई जिंदगियाँ बचती है ) ठीक करता है। हाथ -पैर टूट जाने पर प्राइवेट क्लिनिक वाले कमाते है पर कैंसर,चमकी,एड्स आदि इमरजेंसी के लिए बिहारियों के पास क्या विकल्प है सिवाए PMCH ,IGIMS ,DMCH,AIIMS जैसे दो चार गिने चुने अस्पतालों के अलावा वैसे लोग तो AIIMS दिल्ली तक जाते हैं पर वहां का नेता शायद बिहारियों से उतनी ही नफरत करता है जितना एक भाई-दूसरे भाई से करता है।  वैसे मध्यम वर्ग  के लोग किसी तरह कर्ज वगैरह करके रांची, भेल्लोर, कलकत्ता आदि भी पहुंचते है पर सड़कों और एम्बुलेंस के चक्कर में भी कई जानें चली जाती है। अधिकतर लोगों को CONSULT YOUR DOCTOR का मतलब ही नहीं पता होता है। ऐसे में डर लगना लाजमी है जब ह्रदय और ब्रेन से सम्बंधित इमरजेंसी बिमारियों के बारे में कुछ सुनते है तो। बिहार के लोग किसी तरह टूटे हुए दांत से और कम दिखती आँख से काम चला लेते हैं किन्तु इस COVID -19 नमक नयी बाला से ऐसे लड़ेंगे ? न केवल बिहार पर भारत के अधिकतर राज्यों की कमोबेश यही हालत है,लोग मुलभुत चिकित्सीय सुविधाओं की उम्मीद सरकार से नहीं करते है। गरीबी इसका एकमात्र कारण है ऐसा भी नहीं कहा  जा सकता है। जीवन जीने का मोह हर किसी को है चाहे कोई व्यक्ति गरीब हो या अमीर। यह तो नहीं कह सकते कि लोग मरने के लिए तैयार बैठे हैं, लेकिन अगर स्थिति आती है जैसे अभी आयी है तो क्या हम इसपर फिर से दोबारा सोच नहीं सकते है कि लोगों ने केवल राज करने के लिए  सरकारें नहीं चुनी है न।मुश्किल वक़्त में सही नेतृत्व का आभाव न हो यह भी तो जरुरी है। प्रबंधन के लिए  भी हम उनकी  ओर देखते हैं और उम्मीद लगाते हैं जो हमसे हमसे अधिक होशियार हो और कम से कम से संसाधनों  अधिक कैसे निकाले यह जानता हो। देशहित में अगर नायक उचित फैसले न ले पाए और लोगों को बुनियादी सुविधाएँ तक उपलब्ध न करा पाए तो कहीं न कहीं तो चूक हुई है ऐसा मानना चाहिए। हर साल भारतीय टैक्स भरते हैं और उसके साथ कम से कम इतना तो उम्मीद करते हैं कि इनका प्रयोग देशहित में होगा। अगर हम यह उम्मीद न भी करे तो यह पूछने में क्या बुराई है कि भारत में COVID -19 की टेस्टिंग की सुविधा दो महीनो में पूरी क्यों नहीं की गयी ?
-अस्पतालों को मास्क,दवाइयां,बेड ,वेंटीलेटर और कर्मचारियों से लैश क्यों नहीं किया गया ?
-हरेक जिले में कम से कम बाहर से आ रहे लोगों के लिए जाँच की व्यवस्था और आइसोलेशन की व्यवस्था युधःस्तर पर क्यों नहीं की गयी ?
-बस स्टैंड,हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर यात्रियों की स्क्रीनिंग में और लापरवाही क्यों बरती जा रही है? -बिहार में मात्र एक टेस्ट सेण्टर के भरोसे काम हो रहा है, हरेक जिला में आधुनिक अस्पतालों की नीव अभी तक क्यों नहीं पड़ी थी ?
-लॉक डाउन की तैयारियां कितनी हुई है और कौन कौन सी टीमों के भरोसे बहार से आ रहे संदेहास्पद लोगों को आइसोलेट किया जा रहा है ?
-कहने में बड़ा आसान है कि हम खुद को लॉक डाउन कर लें या क्‍वॉरेंटाइन की प्रक्रिया को अपना लें मगर इस देश में ऐसे कई लोग हैं जो क्‍वॉरेंटाइन का मतलब भी नहीं समझते हैं। खासकर दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर अगर खुद को क्‍वॉरेंटाइन करेंगे तो खाएंगे क्या?
-मुंबई जैसे महानगर से मजदूर लौट कर आ रहे हैं वो भी खचाखच भरे ट्रेनों में, इस बात का संज्ञान कौन ले रहा है ?
-उनको आज से स्कूलों में रखने की व्यवस्था हो रही है। कल तक दानापुर जैसे स्टेशन पर लापरवाही की खबरे आ रही थी जो की पटना में है तो गांवों में खंडहर हो चुके स्कूलों में क्या व्यवस्था एक दिन हो पाई होगी?
-क्या हमारे पास वह व्यवस्था है कि हम उनके लिये खाना, दैनिक कर्म की सुविधा और डॉक्टर उपलब्ध करा पाएंगे?
-क्या लॉक डाउन करने से होने वाली समस्यायों और अफवाहों से निबटने की तयारी की गयी है ?
- क्या बिहार जैसे राज्यों के टोलफ्री पर कुछ अनुभवी और शालीन लोगों को बैठाया गया कि पहले जैसे ही अभद्रता से पेश आने वाले लोग बैठे है ?
राज्यों के नंबर 


 "जब जागो तब सवेरा" किसने नहीं सुना होगा इस कहावत को ? वैसे तो इस कोरोना ने सबकुछ उल्टा ही कर दिया है लेकिन फिर भी ज्यादा देर नहीं हुई है। दोष और भी निकाले जा सकते है पर अभी दोष निकालने का समय नहीं है, अभी तो चेत जाने का समय है , अभी सतर्क होने और सावधान करने का समय है। इस मुश्किल दौर में भी उम्मीद हमें छोड़नी नहीं चाहिए पर यह अवश्य याद रखना चाहिए हमें कि रोकथाम हमेशा ही  इलाज से बेहतर रहा है। 
इटली जैसा विकसित देश जिसका चिकित्सा क्षेत्र में हमेशा ही नाम लिया जाता रहा वह भी हार गया,निश्चित तौर पर कुछ गलतिया हुई होगी पर हम बिहारवासी क्या सीख सकते हैं उनकी गलतियों से , इसपर चर्चा और विमर्श करनी चाहिए। हम वह सब नहीं झेल सकेंगे जो इटली और अमेरिका ने बर्दाश्त किया है। 






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135 करोड़ की आबादी पर भारत में केवल 40 हजार वेंटिलेटर





Wednesday, 28 March 2018

एक जवान और चला गया

मैं कभी उनसे मिला नहीं। मिलना तो दूर, कभी देखा तक नहीं। न ही सोशल मीडिआ पर ही मुलकात हुई कभी। फिर भी मेरा मन इतना विचलित क्यों है? जब से दुर्घटना की खबर मिली, क्या ऐसा है जो अभी तक परेशान कर रहा है मुझे ? क्या यह बात कि वे मेरे गांव के लोगो की सुरक्षा के  लिए आये थे या फिर यह बात कि वह भी मेरी तरह किसी माँ का दुलारा होगा जो घर चलाने के लिए बाहर नौकरी कर रहा था। मैं नहीं जानता कि मेरा नादान मन क्यों उस जवान के लिए रो रहा है।
कल दोपहर सोशल मीडिया पर कहीं पढ़ा कि बी एम् पी जवानों के बस (जो की रजौली में रामनवमी के जुलुस को शांतिपूर्वक संपन्न कराकर लौट रहे थे ) और एक ट्रक में टक्कर हुई और बस में बैठा प्रत्येक जवान बुरी तरह से घायल हो गए। एक की मौत की सुचना थी। मेरे लिए यह कोई नयी खबर नहीं था,रोज टक्कर होता है उस कातिल सड़क पर, रोज लोग घायल होते हैं। रोज किसी परिवार का कोई अपना अस्पताल में पहुँचता है। लोग थोड़ी देर मायूस होते हैं फिर अपने-अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं। लेकिन कल मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ , मैंने दूसरी बार सर्च किया और कई न्यूज एजेंसिओं के खबर पढ़े। दुर्घटना करिगांव मोड़ के पास हुई थी। 26 जवान घायल हुए जिनमे 16 की हालत गंभीर बानी हुई है और एक जवान की मृत्यु हो गयी। उनका नाम आकाश कुमार है, वे बीएमपी 3 का जवान थे। 2 साल पहले ही उनकी नौकरी लगी थी। अख़बार में पढ़ा कि वे अपने परिवार के अकेले कमाई करने वाले थे। आकाश बेगुसराय के तेघड़ा का निवासी थे। उनकी मृत्यु की खबर उस शहर को गमगीन कर गया। न जाने उनकी माँ पर क्या बीत रही होगी। उनके पिता और भाई-बहनों का क्या हाल हो रहा होगा?
शाम होते-होते खबर मिली की जवानों के सामने जब नवादा पुलिस लाइन में जब आकाश के पार्थिव शरीर को सलामी दी जानी थी तब उके शव को तिरंगे में न लिपटा देखकर, उनके साथी बर्दाश्त नहीं कर सके। वे काफी भावुक थे और जैसे ही मेजर रामेश्वर दिखे, उनपर बिफर पड़े। हाथापाई करने के बाद दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। जवानों ने कहा कि 'दुर्घटना के बाद मेजर को कई बार फ़ोन किया गया पर पहले तो उन्होंने फ़ोन ही नहीं उठाया और फिर संसाधनों की कमी की दुहाई देने लगे, अगर समय पर सहायता पहुँचती तो शायद तो शायद हमारे साथी की जान बचाई जा सकती थी।' अन्य अधिकारीयों के समझाने पर वे शांत तो हो गए परन्तु हमारे लिए प्रश्न जरूर छोड़ गए कि क्या उनका गुस्सा करना अनुचित था ?


नवादा एसपी विकाश वर्मन ने बाद में कहा यह घटना दुर्भाग्यपूर्ण है.पुलिस बहुत ही सीमित संसाधन के बीच काम करती है। रामनवमी के जुलुस के कारण सभी लोगो की ड्यूटी विभिन्न जगहों पर बटी होने के कारण सहायता पहुंचाने में देरी हुई।
मेरा प्रश्न है कि अगर आपके पास संसाधनों की कमी है तो उसकी वजह से हमारे जवान क्यों मारे जाये ? यह पुलिस का और प्रशासन की जिम्मेदारी थी कि किसी भी हाल में सहायता पहुंचाई जाये।  जो जवान घायल हुए उन्हे रजौली और नवादा सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया फिर पीएमसीएच रेफर कर दिया गया। क्या यह जवानों के जीवन से खेलना नहीं है ? कोई भी सुविधा नहीं है इन अस्पतालों में सिवाय रेफर करने के तो फिर क्यों सरकार और प्रशासन इसमें सुविधाएँ मुहैया नहीं करवाती ? क्यों कभी जाँच नहीं की जाती ?
केवल दोष प्रशासन का हो यह भी पूरी तरह से सत्य नहीं है। हमलोग जिसकी सुरक्षा के लिए वे जवान अपने घर में त्यौहार न मनाकर दिनभर एक बेगाने गांव में तैनात रहा, कौन से दूध के धुले हुए हैं ? क्या समाज को इतनी भी अक्ल नहीं कि पर्व-त्यौहार कैसे मनाना चाहिए और कैसे अपने दायित्व निभाकर घायल व्यक्ति की सेवा करनी चाहिए ?