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Tuesday, 30 March 2021

ककोलत जलप्रपात : बिहार का कश्मीर


ककोलत एक ऐसा नाम जो नॉस्टैल्जिया बन चुका है अब। जो लोग नवादा के रहने वाले हैं या बिहार से जुड़े हैं उन्हें बताने की जरूरत नहीं कि ककोलत क्या है, पिछले कुछ वर्षों में जब भी बिहार और पर्यटन का नाम साथ में आता है तो ककोलत जलप्रपात का नाम जरूर लिया जाता है । बिहार के नवादा जिले में गोविंदपुर विधानसभा के अंतर्गत आता है एकतारा गांव और उसी गांव के आसपास सुरम में पहाड़ियों के बीच में एक बड़ा ही मनोरम झरना है इसे बिहार का कश्मीर भी कहा जाता रहा है नाम हुआ ककोलत जलप्रपात। जिला मुख्यालय नवादा से 33 किलोमीटर दूर, एनएच 31 (फतेहपुर मोड़) से करीब 16-17 किलोमीटर दूर यह जलप्रपात ठंडे पानी का झरना है जिसकी ऊंचाई करीब 160 फुट है लेकिन प्रसिद्धि में इसका नाम काफी ऊंचा रहा है। हरे भरे पहाड़ों के बीच में यह झरना न केवल गर्मियों में लोगों को राहत देती है बल्कि आंखों को भी ठंडक पहुंचांती है। झरने में साल भर ठंडा पानी बहता रहता है जो कि नीचे एक विशाल जलाशय में जमा होकर फिर नीचे गांव की ओर बह जाती है लेकिन ककोलत जलप्रपात में सैलानी फरवरी से आना शुरू हो जाते हैं जो कि बरसात आने तक लगातार आते ही रहते हैं। इस इलाके में आने मात्र से ही ठंडक महसूस होने लगती है एक अजीब तरह की संतुष्टि मिलती है जिसका वर्णन केवल वहां जाकर ही किया जा सकता है शब्दों में करना मुश्किल है। स्थानीय लोग और दूर-दूर के सैलानी अपने प्राइवेट वाहनों से परिवार के साथ पिकनिक मनाने के लिए आते हैं और झरने के शीतल जल में स्नान करके स्वयं को तृप्त करते हैं। लोगों के मानस में रचा बसा झरना उनके मन मस्तिष्क में एक मीठी याद बनकर रहती है। ककोलत जलप्रपात न केवल पर्यावरण के रूप से महत्वपूर्ण है बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी जिले में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।







इस झरने के संबंध में एक पौराणिक आख्‍याण काफी प्रचलित है। इस आख्‍याण के अनुसार त्रेता युग में एक राजा को किसी ऋषि ने शाप दे दिया। शाप के कारण राजा अजगर बन गया और वह यहां रहने लगा। कहा जाता है कि द्वापर युग में पाण्‍डव अपना वनवास व्‍यतीत करते हुए यहां आए थे। उनके आशीर्वाद से इस शापयुक्‍त राजा को यातना भरी जिन्‍दगी से मुक्‍ित मिली। शाप से मुक्‍ित मिलने के बाद राजा ने भविष्‍यवाणी की कि जो कोई भी इस झरने में स्‍नान करेगा, वह कभी भी सर्प योनि में जन्‍म नहीं लेगा। इसी कारण बड़ी संख्‍या में दूर-दूर से लोग इस झरने में स्‍नान करने के लिए आते हैं। वैशाखी और चैत्र सक्रांति के अवसर पर विषुआ मेले का आयोजन किया जाता है।इस अवसर पर अनेकों गाँव तथा अन्य लोग भी यहाँ आते है। इस मेला को ककोलत आने का औपचारिक शुरूआत भी माना जाता है,,क्योंकि यह गर्मी के शुरूआत में मनाया जाता है। (Wikipedia से)


ककोलत जलप्रपात हाल के वर्षों में अपनी बदहाली पर भी रो रहा है। ककोलत जलप्रपात के प्रसिद्धि के कारण मुख्य धारा के सैलानी लगातार बड़ी संख्या में हम पहुंचने लगे हैं ऐसे में मूलभूत सुविधाओं के अभाव में उन्हें काफी परेशानी हो रही है। साफ सफाई एवं सुरक्षा तो मुख्य मुद्दा रहा ही है लेकिन महिलाओं के लिए एक चेंजिंग रूम का मांग कई वर्षों से जारी है वहीं दूसरी ओर ककोलत में टॉयलेट की सुविधा अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाई है जोकि एक मूलभूत आवश्यकता है।स्थानीय लोग तथा सैलानी सोशल मीडिया पर इस संबंध में लगातार आवाज उठाते रहे लेकिन प्रशासन और सरकार के दिलासा के अलावा ककोलत को कुछ नहीं मिल पाया है। अभी 2 वर्ष भी नहीं हुए जब बिहार सरकार एवं जिला प्रशासन ने ककोलत को ईकोटूरिज्म हॉटस्पॉट बनाने का भरोसा दिया था जिससे कि स्थानीय लोगों के जीविका में सुधार होता एवं युवाओं को रोजगार मुहैया होता किंतु इस और प्रयास बिल्कुल भी नहीं किया गया खैर इन सब के बावजूद ककोलत का आकर्षण हमेशा ही बना रहता है और बना रहेगा।
जो लोग पहले कभी भी ककोलत नहीं आ पाए हैं उनके लिए निम्न मार्ग है-
वायु मार्ग
यहां का निकटतम हवाई अड्डा गया में है। लेकिन यहां वायुयानों का नियमित आना जाना नहीं होता है। इसलिए वायु मार्ग से यहां आने के लिए पटना के जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा आना होता है। यहां से सड़क मार्ग द्वारा ककोलत जाया जा सकता है।

रेल मार्ग
नवादा में रेलवे स्‍टेशन है जो गया - क्यूल रेलखंड से जुड़ा हुआ है। गया जंक्‍शन रेल मार्ग द्वारा देश से सभी शहरो से जुड़ा हुआ है। कोडरमा स्टेशन से भी बस पकड़ कर थाली मोड़ आया जा सकता है।

सड़क मार्ग
राष्‍ट्रीय राजमार्ग 31 पर स्थित होने के कारण ककोलत देश के सभी भागों से सड़क मार्ग द्वारा अच्‍छी तरह से जुड़ा हुआ है। फतेहपर से 18 किलोमीटर की यात्रा में 15 किलोमीटर तक सार्वजनिक वाहन मिल जाते है,,आखिर के तीन किलोमीटर जो थाली मोड़ से शुरू होता है।


ककोलत जलप्रपात से जुड़ी यह जानकारी आपको कैसी लगी आप मुझे कमेंट बॉक्स में बताएं या फिर ईमेल करें। साथ ही ककोलत के साथ जुड़े आपके यादों को भी मैं पढ़ना चाहूंगा समझना चाहूंगा आप चाहे तो उसे भी बता सकते हैं। आपका प्रशांत

 

Friday, 10 July 2020

कोरोना वायरस के चपेट में अब गांव भी


जब मैं यह सब लिख रहा हूं तब मुझे ध्यान आया कि आज से 3 महीने पहले मैं इस महामारी को कितना मजाक में ले रहा था। मैं क्या, मेरे आस पास लगभग हर कोई वायरस से होने वाले खतरों से अनजान बनने का हर संभव प्रयास कर रहा था। हर दूसरी बात में कोरोना से संबंधित मजाक शामिल था। मानो कोरोनावायरस न हुआ, हंसी ठिठोली का एक टॉपिक हो गया। इसमें दोष केवल हमारा भी नहीं था, जिस तरह से इसकी सूचना हम जैसे गांव वासियों तक फैली वह भी कुछ हद तक हास्यास्पद पर ही था। सीरियस मैटर पर किसी ने ध्यान देना उचित समझा भी नहीं। कोई चीन को कोसने में लगा हुआ था तो कोई सरकार को। बहुत से लोग थाली- घंटे बजवाने को लेकर आपस में उलझे हुए थे, लॉकडाउन तो हंसी मजाक का डोज ही लेकर आया था। लोग वास्तविक उद्देश्य को बिल्कुल ही भूल बैठे। "सोशल मीडिया और खाली समय" इन दो चीजों ने तो लोगों के उर्वर मस्तिष्क को नए-नए ज्ञान लिखने और आपस में साझा करके चर्चा करने को प्रेरित किया (प्रेरित करने से ज्यादा उचित शायद हौसला अफजाई करना रहेगा क्योंकि लोग कल्पनाशीलता के हदें पार करने लगे थे) सरकार के तरफ से भी कोई विश्वसनीय एक्शन नहीं लिया गया, केवल प्रशासन की चुस्ती दिखाने का मौका को छोड़कर। ऐसे समय में कुछ संवेदनशील लोग इस बात की चिंता करने लगे कि गरीब लोग खाएंगे क्या और प्रवासियों को होने वाली परेशानियों को कैसे कम किया जा सके ? मीडिया (खासकर टेलीविजन) अलग ही बौखलाहट में था। तरह-तरह के दावों के साथ रोज नए विशेषज्ञ अपनी राय जाहिर कर रहे थे। पत्रकार भी दक्षिण-वाम/सरकार-जनता/ विपक्ष-पक्ष मैं इतना व्यस्त हुए कि वे भूल गए कि दर्शक गण का भी अपना दिमाग होता है। दर्शकों ने भी विशेषज्ञों की बहुत सी बातों पर अमल करना शुरू किया। ऐसे में खबरें आई कि साबुन से हाथ धोते रहने से संक्रमण का खतरा कम होगा और मास्क पहनकर रहने से बचाव संभव है। लोगों ने सब कुछ किया, इसमें कोई शक नहीं पर हम जैसे लोग आखिर कब तक घर में समय काटते? धीरे-धीरे लोग महामारी को मजाक समझ ही बैठे। गौर करें पहले इस पर मजाक बनाया जा रहा था अब इसे ही मजाक समझा गया।



करीब तीसरे लॉकडाउन के शुरू होने तक नवादा जैसे जिले में गिने-चुने केस ही मिले थे और यह प्रमाणित थे। जिस इलाके में कोरोना संक्रमित मिलता उस पूरे इलाके को सील किया जाने लगा पर फिर भी जनसंख्या का बहुत ही नगण्य प्रतिशत लोग संक्रमित थे। मुंबई, दिल्ली जैसे महानगर में हालात कुछ और थी पर गांव सुरक्षित थे। ग्रामीण सुरक्षित थे, यहां तक कि शहर से आ रहे प्रवासी जिन्होंने बहुत कष्ट झेला और क्वारंटाइन सेंटर में सुविधाओं के अभाव में रहे वह भी संतुष्ट थे अपने गांव की खैरियत सुनकर। लोगों ने आपस में मिलना जुलना कम कर दिया, यहाँ तक की महापर्व छठ भी घरों में मना लिया जिसे प्रकृति से जुड़ा रहना था। इन सब के बीच कुछ लोगों को पैसा कमाने का जरिया भी मिला, सरकारी तंत्र के साथ मिलकर यह लोग भ्रष्टाचार में लगे। चाहे राशन वितरण में हो या फिर साबुन मास्क वितरण में। जिनकी जैसी मंशा थी वैसा वे कीये। किंतु सबसे अहम बात जो इन दिनों मैंने महसूस की कि बिहार जैसे राज्य में जहां उंगली पर गिने जा सकने की संख्या में बढ़िया हॉस्पिटल होने के बाद भी लोग डरे नहीं। बल्कि भरोसा जताया सिस्टम पर, डॉक्टरों और नर्सों पर। मैं तो ताज्जुब में था कि जहां सांप काटने पर अस्पताल मुहैया नहीं, जहां महिलाओं और बच्चों की जान केवल इसलिए चली जाती है क्योंकि प्रसव के वक्त उचित सुविधाएं जिसमें स्वच्छता और बिजली भी शामिल है नहीं मिल पाती है । वह राज्य कैसे हैंडल करेगा कोरोना को?? लेकिन भगवान भरोसे सबका जीवन चल ही रहा था और आगे भी चलेगा यह मानकर शायद मैं शांत हूं और लोग भी चुप है। वैसे भी बिहार जैसे राज्य में (केवल बिहार ही क्यों?) अन्य राज्यों में भी कोरोनावायरस बहुत कम किए जा रहे थे और आंकड़ों का हेरफेर जारी था। ईमानदारी तो कब का तेल लेने गई थी सो अभी तक लौटी नहीं । हम जैसे लोगों को यह बात मालूम कब से है।





राज्य की खस्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था पर मैंने पहले भी लिखा है और फिर भी लोग सवाल करने के बजाय चापलूसी और चमचागिरी में लगे हुए हैं। मैं इससे ज्यादा कर नहीं सकता हूं।
ऐसे में जब कुछ लोगों से बात करता था तो उनमें से अधिकतर लोग डरे सहमे थे,कुछ तो भगवान से मना रहे थे कि यह सब जल्द खत्म हो जाए और वापस जीवन पटरी पर लौट जाए। पटरी पर लौटने की बात से याद आया की देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उत्तर भी गई थी। हां पर्यावरण में काफी सुधार महसूस की गई। जो भी हो अभी तक गांव बचे हुए थे कोरोना से। लेकिन अभी जब मैं लिख रहा हूं तो मैं भी डरा हुआ हूं, यह डर मौत का नहीं है। यह कोरोनावायरस का अजीब सा खौफ है। कोरोना के चलते प्रशासन और लोगों की बदलते व्यवहार का खौफ है। अभी बारिश हो रहा है पर हल्का बुखार भी मुझे और मुझ से जुड़े लोगों को डरा दे रहा है। पापा को टाइफाइड हुआ है, पर लक्षणों से कोरोना लगा इसलिए कोरोनावायरस टेस्ट भी करवा लिए, लेकिन टेस्ट रिजल्ट आने तक जो बेचैनी मैंने देखी उसका खौफ है। जिस तरह से अफवाह सुनकर लोगों के व्यवहार में परिवर्तन आया उसका खौफ है। पापा 5-6 दिनों से एक रूम में रह रहे हैं, जो कि उनके स्वभाव के विपरीत है और फिर भी अपनी और औरों के सुरक्षा का ख्याल से हर निर्देश का पालन कर रहे हैं। किंतु मैं लापरवाह रहा हूं अभी तक क्योंकि अनुशासन की तिलांजलि मैंने कब का दे दिया था। 4 दिन पहले की खबर है स्टेट बैंक के कर्मचारी संक्रमित पाए गए, बैंक बंद है। बाजार के कुछ लोग भी संक्रमित हैं। बहुत से ग्रामीणों में अजीब सा भय है। कोरोना अब गांवों में फैल चुका है। अब देश सुरक्षित नहीं है ।





सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं,हाथ तो खैर पहले से खड़ा था पर अब भरोसा भी नहीं रहा। मिलकर लड़ेंगे- मिलकर जीतेंगे यह बातें अब बेमानी लगती है। प्रशासन को सख्त निर्देश मिला है कि वे इसे फैलने से रोके और यह निर्देश तब मिला है जब यह हर जगह फैल चुका है। राज्य भर में मास्क पहनना अनिवार्य कर दिया गया है, पुलिस को सख्त निर्देश दिया गया है कि जो भी बिना मास्क का मिले उसे दो मास्क दिया जाए और जुर्माना वसूला जाय। इधर देख रहा हूं कि पुलिस जुर्माना वसूलने में इतना व्यस्त है कि रसीद काट कर देना भूल जा रही है मास्क का तो कुछ अता पता ही नहीं है। इस महामारी में यह लोग पैसों को दांत से पकड़ना नहीं भूल रहे हैं पर यह जरूर चाहते हैं कि हर आदमी अपना काम धंधा छोड़ कर घर में जरूर बैठ जाए। शायद इसीलिए तो दूध बेचने जा रही है एक औरत को डंडे से पीट दिया था पुलिस ने लॉकडाउन में। खैर मास्क, सैनिटाइजर, और साबुन बनाने वाले भी अवसर देख रहे हैं और सरकार तो इस बात पर आंखें गड़ाए हुए हैं कि कब सरकारी गोदाम में गेहूं चावल सड़े उसे सैनिटाइजर बनाकर पोस्ट ऑफिस के माध्यम से बेचा जाए। इन सब के बावजूद लोगों ने यह पूछना छोड़ दिया है कि दवाई कब बनेगी और कौन बना रहा है? गांव के अस्पताल में अभी तक सुविधा क्यों नहीं पहुंची?
आज से कुछ जिलों में फिर से लॉकडाउन किया गया है।डीएम व अन्य अफसर क्या सोच रहे हैं यह मालूम नहीं पर लौकडाउन बढ़ने के पूरे आसार दिख रहे हैं। मैं यह नहीं पूछ रहा कि लॉकडाउन खोला क्यों?वह शायद हर कोई जान रहा है पर यह जरूर पूछ रहा हूं कि हमारे जान के साथ ऐसा भद्दा मजाक क्यों??

आपका प्रशांत

Saturday, 18 April 2020

रजौली संगत से जुडी यादें

रजौली संगत: पीछे की तस्वीर 

आज सुबह जब मैं सब्जी लाने जा रहा था तो न जाने क्या मन में हुआ मैंने फोन निकाला और संगत की फोटो खींच ली एक नहीं तीन चार फोटो। सब्जी लेकर सीधे घर आने के बजाय मैं देवी अस्थान होते हुए संगत का बाहर से दीदार करते हुए आया। अभी एक घंटा पहले जब मैंने लिखना शुरू किया तो ध्यान हुआ कि आज विश्व विरासत दिवस मनाया जा रहा है, यह मात्र इत्तेफाक है या कुछ और यह तो मालूम नहीं पर रजौली संगत के बगल से मैं जब भी गुजरता हूं तो एक स्वप्न मेरे मन में अवश्य आता है कि किसी दिन यह संगत भी एक विरासत के रूप में देश भर के लोगों के लिए उपलब्ध होगा। हालांकि यह कपोल कल्पना नहीं है क्योंकि मैं जानता हूं भले ही लोग अभी इस संगत के रखरखाव के प्रति उतने सचेत नहीं हो परंतु यह संगत अवश्य लोगों को आपस में जोड़ने की शक्ति रखता है। जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो संगत आना जाना लगा रहता था उन्हीं दिनों मैंने कई जानकारियां जुटाई इसके बारे में विकिपीडिया पर कुछ संशोधन भी किया है मैंने अखबारों में लगातार छोटे-छोटे लेख लिख कर भेजे थे एकाद छपा भी है। फेसबुक और ट्विटर पर तस्वीरें डाली है सरकारों से इसके रखरखाव की मांग की है, गूगल मैप्स से शुरुआती तस्वीरों में मैंने ही डाली थी यह सोचकर कि जब नालंदा का खंडहर प्रसिद्ध है तो कम से कम यह संगत रजौली का नाम ऊंचा करेगा। दोस्तों से तो इस संबंध में अनगिनत बातें की है मैंने मैंने वैसे यह केवल मेरी यादों में नहीं है मैंने संगत को जिया है आप पूछ सकते हैं कि कोई कैसे जी सकता है एक स्थल को तो मैं कहूंगा कि जैसे मगहिया पान में लाली छुपी होती है वैसे ही मेरे साथ संगत बसा है। हां इधर कुछ वर्षों में पता नहीं क्यों संगत की ओर जाता नहीं था पर आज वो यादें फिर से ताजा हो गई है दिल से टीस फिर उठी है कि कैसे रजौली के इतने सारे बेटों के रहते हुए संगत अपनी बदहाली पर इतने दिनों से रोता आया है इसकी छत गिरने लगी है दीवारों में दरार आ चुकी है आसपास के जमीन को लोग हथियाने में लगे हुए हैं और हर जगह गंदगी का अंबार लगा हुआ है कुआं भरने वाला है और दरवाजे कमजोर होने लगी है जो कुछ भी बाबा श्रीचंद के नाम पर था वह तो कब का भुलाया जा चुका है कीमती वस्तुएं पता नहीं किसने चोरी की है गुरु नानक देव और उनके प्रथम सुपुत्र श्री चंद बाबा का विचार तो शायद ही लोग कभी अपना पाए हो, हैरानी तो इस बात की है कि संगत को भी पराया ही समझा है लोगों ने।
इस संगत का अपना ही इतिहास रहा है और कई कीवदंतिया भी प्रचलित है इसके बारे में जैसे बचपन में हम बच्चे आपस में बातें करते थे की बहुत बड़े शेर पर राजा की सवारी निकलती थी संगत के मुख्य द्वार से हालांकि अब लगता है कि यह सच तो कतई नहीं हो सकता होगा पर फिर भी शान ओ शौकत का एक छोटा सा हिस्सा तो जरूर रहा होगा।

आपका प्रशांत



Friday, 6 April 2018

रजौली परमाणु बिजलीघर के विरोध में पहला कदम




पिछले कई वर्षों से सरकारी और गैर-सरकारी सूत्रों से कहा जा रहा है कि 'रजौली' में परमाणु बिजलीघर बनेगा। जब कभी भी ऐसी खबर आती थी तो लोगों में कई तरह की चर्चाएं चल पड़ती थी। जैसे कि परमाणु बिजलीघर बनना चाहिए या नहीं। बनने से क्या फायदे हैं और क्या नुकसान इन बातों पर चर्चा केंद्रित होता था। लोगों को कई बार "कब बनेगा?" यह पूछते हुए सुना है मैंने। कैसे बनेगा और क्यों बनना चाहिए इन बातों पर शायद ही किसी का ध्यान जाता था। आमतौर पर लोग इसे चुनावी घोषणा या वादा समझते थे और फिर भूल जाते थे परन्तु अख़बारों में रह रहकर इससे सम्बंधित खबरे छपती रहती थी, लोग भी बड़े ध्यान से एक-एक शब्द पढ़ते, चर्चाएं करते। राजनीति से जोड़ने वालों की कमी तो खैर पुरे इलाके में नहीं है।कुछ दिनों बाद फिर वही दुनियादारी में लोग मग्न हो जाते। 
पॉवरप्लांट 'रजौली' को देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रसिद्धी दे रहा है। मैंने कई बार गौर किया है कि जब भी कोई मुझसे मेरा पता पूछता है और मैं रजौली बताता हूँ तो उनमे से कुछ अगला सवाल डालते हैं 'परमाणु पॉवरप्लांट' वाला रजौली न ! इसपर मेरा उत्तर उतना उत्साहजनक नहीं होता है पर हाँ जरूर कहता हूँ। इसका कारण समय के साथ अलग अलग रहा है। 
मुझे याद है शायद 2011-12 की बात थी 'रजौली' में न्युक्लीअर पॉवरप्लांट बनाने के लिए लगातार बिहार सरकार और केंद्र सरकार में बातें हो रही थी। उस समय स्थानीय लोग काफी रुची ले रहे थे। उसके बाद फिर कई महीनो तक कोई बात नहीं हुई। बीच-बीच में फिर बातें होने लगी पर मैंने उतना ध्यान नहीं दिया। कभी खबर आती कि अधिकारियों का एक समूह क्षेत्र का जायजा लेने आया है तो कभी खबर आती की फुलवरीआ डैम में पानी की कमी के कारण प्रोजेक्ट लटक गया है। फलाना- ढेकाना और पता नहीं क्या-क्या।  
आज जब मैंने फिर से इससे सम्बंधित खबर पढ़ी कि  "न्यूक्लियर पॉवर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआईएल) ने नवादा में परमाणु बिजलीघर स्थापित करने का प्रस्ताव दिया है। इस परियोजना पर करीब 70 हजार करोड़ रुपए का निवेश होगा। उद्योग मंत्री जय कुमार सिंह ने कहा कि राज्य सरकार ने इसके लिए एक हजार एकड़ जमीन चिह्नित कर दी है।एनपीसीआईएल के प्रस्ताव पर ऊर्जा विभाग मंथन कर रहा है और जल्द ही निर्णय लिया जाएगा।" तो लगा कि जो खिचड़ी बहुत दिनों से दिमाग में पक रही थी वह तैयार है। तुरंत समझ में आया कि आखिर क्यों ये सब हो रहा था और कब तक हो सकता है। दिमाग में गुबार की तरह कई प्रश्न उठे और अगले ही क्षण उनका उत्तर भी मिल गया। मेरे लोगों को कितना फायदा होगा और कितना नुकसान इसका अंदाजा भी लगाया। नफा तो खैर सबको दिख रहा है पर नुकसान पर लोग आखें मुंड ले रहे है। मैं रजौली का बेटा हूँ और बचपन से ह्रदय में रजौली बसा है। मैं जानता हूँ कि मेरे रजौली का नुकसान हरगिज नहीं होना चाहिए, नफा हो या न हो। बेचैन मन से यह सब लिख रहा हूँ, कोशिश करूँगा कि कभी शांत मन से इसे आसान भाषा में लिखूं और क्षेत्र के हर आदमी तक पंहुचा दूँ। लेकिन तब तक जो इसे पढ़ रहे हैं उनसे निवेदन है कि वे मेरा साथ दें रजौली में परमाणु बिजलीघर के विरोध हेतु। 

आपका   

प्रशांत 
(prashantsamajik@gmail.com)

Friday, 30 March 2018

आखिर क्यों जला मेरा नवादा ?

पहले भागलपुर और समस्तीपुर जला फिर औरंगाबाद होते हुए नालंदा और अब मेरा गृह जिला नवादा इसकी चपेट में है। मैं लिखना नहीं चाहता दंगा-फसाद पर किन्तु आज मजबूर हूँ कलम उठाने को। कोई भेड़िया बहुत ही चालाकी से लोगों के धार्मिक भावनाएं भड़काने में कामयाब हुआ है। समाज बटकर आपस में लड़ने को तैयार है। अगर यह युद्ध होता तो बेझिझक मैं मैदान में होता पर जानता हूँ ये साजिश है, मेरा घर जलाने की।किसी को अपने घर में लड़ाई करवाते मैं नहीं देख सकता। बेबस हूँ यह भी सोचकर कि भविष्य का नवादा पूछेगा कि कैसा समाज तैयार किया है आपने। परंतु फिर भी यह जरूर कहुंगा कि 'जो है इन सबके पीछे, भले आज कामयाब हो जाओ पर कल तुम्हें घुसने न दुंगा अपने घर।'

सुबह जैसे ही व्हाट्सप्प खोला तो कई ग्रुप में हनुमान जी की टूटी हुई मूर्ति वाली तस्वीर थी और साथ में लिखा हुआ था - 'बिहार  के नवादा जिले के गोंदापुर में विशेष समुदाय के लोगो द्वारा बजरंग बलि की मूर्ति को खंडित किया गया। जिसमे हिन्दू समुदाय के लोगो में काफी गुस्सा है। जिले में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की आशंका है।' फेसबुक पर भी अपने आप को न्यूज़ चॅनेल मानने वाले लोगों और पेजों ने कई तरह के लिंक डाल रखे थे। उसके बाद लोगों ने जाकर राष्ट्रिय राजमार्ग 31(NH31) जाम कर दिया, तब जाकर प्रशासन हरकत में आयी। परन्तु ये क्या नवादा के आला पुलिस अधिकारियों के पहुंचने के बाद भी नवादा जला। कुछ रिपोर्टरों जब पहुंचे तो उनके कैमरों और माइक को कुछ दंगाई युवकों ने तोड़ दिया। 

दुकान के सामने लगे बाइक व जनरेटर में लगाई आग 



आखिर कौन थे वे जो चिंगारी भड़काने के बाद नेपथ्य में चले गए और आग को बढ़ते हुए देख खुश हो रहे थे? जनता कयास ही लगाते रह जाती है और नेता(लोग उन्हें नेता मानते हैं, मैं नहीं) अगली चाल चलकर आम जनता को आपस में लड़वाने में कामयाब हो जाते हैं।  एक बार चिंगारी निकली फिर सोचने का अवसर कहाँ मिलता है लोगो को। तुरंत दो गुट बन जाता हैं और अगर नहीं बन पाता है तो तथाकथित नेता अपने आदमी भेजकर लोगों को भड़काने सफल हो जाते हैं।  फिर दुकाने जलती है, गाड़ियों के शीशे टूटते हैं , पत्थरबाजी होती हैं। तलवारें निकलती है और गोलियां चलती है। मुहल्लों में धुएं दिखने लगते हैं , हर तरफ चीख-पुकार और अफरा-तफ़री का माहौल। जो शहर एक दिन पहले गुलजार था वो अब खँडहर नजर आने लगता है। 
किसी ने पूछ लिया लिखते वक़्त कि प्रशासन क्या करता है, प्रशांत बाबू? 
मैं कहता हूँ तुम ये प्रश्न मुझसे क्यों पूछते हो ? पूछों न जाकर उन्ही से, अगर कोई जवाब मिले तो हमें भी बताना। उसके पुनः रिक्वेस्ट करने पर मैंने वही बताया जो सबको मालूम होता है पर कोई मनन नहीं करता। प्रशासन रहता है सरकार के दबाव में और अपनी शक्ति में फुला हुआ।पहुँचता है आराम से, तब तक कोई मारा जाता है या असली अपराधी भागने में कामयाब हो जाता है। दुर्भाग्य हमारा की हम सरकार और प्रशासन पर ऐसे विश्वास कर लेते हैं, जैसे सांप को कोई फूल माला समझ बैठे।ये भी तो सोचना चाहिए कि हम शंकर भगवान तो नहीं है। 

दंगा फ़ैलाने वाले मौज कर रहे हैं, कहना न होगा कि इसमें राजनीतिक स्वार्थ छिपा हुआ है। बिना हम ये पहचाने कि दुश्मन कौन है हम तलवार भांजने निकल पड़ते हैं और अपने ही लोगों पर वार करते हैं। आखिर एक दिन दंगा शांत होता हैं और फिर बचता है तो केवल पछताने के लिए समय।किसी परिवार के लिए जीवन भर का दुःख और दर्द। परन्तु फिर भी बहुत हद तक हम कोशिश करते हैं अपने उजड़े शहर को बसाने की, लोगों से मिलकर अपने दुःख-दर्द बाटने की क्योंकि आखिर में तो हमें अपने ही समाज में रहना हैं।