Tuesday, 28 July 2020

बाघ संरक्षण क्यों जरुरी है : अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस पर विशेष

29 जुलाई को प्रत्येक वर्ष सारा विश्व अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस के रूप में मनाता है। 2010 में रूस के शहर सेंट पीटर्सबर्ग में बाघों की आबादी वाले देशों ( भारत, भूटान, नेपाल, रूस, थाईलैंड, इंडोनेशिया, चीन, बांग्लादेश, कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, लाओ ) ने बाघ शिखर सम्मेलन का आयोजन किया और इस बात पर गंभीर चर्चा की गई कि बीसवीं सदी की शुरूआत के बाद में जंगली बाघों की संख्या में 95% से अधिक की गिरावट आई है और अगर ऐसा ही चलता रहा तो अगले 5 सालों में एक भी बाघ इस धरती पर नहीं बचेगा। निर्णय लिया गया कि 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी करने का प्रयास सभी मिलकर करेंगे। उसी वर्ष से 29 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस के रूप में मनाया जाएगा ताकि बाघों के संरक्षण के प्रति विश्व में जागरूकता फैले। इस दिन संपूर्ण विश्व में सरकारें, विशेषज्ञ व पर्यावरण प्रेमी आम लोगों तक जागरूकता फैलाने का कार्य करती है विभिन्न माध्यमों के प्रयोग से। चर्चाएं व प्रतियोगिताएं आयोजित किए जाते हैं और अनजान लोगों को इस संबंध में जागरूक करने हेतु फिल्मों, पोस्टर आदि का प्रयोग किया जाता है।
SOURCE TWITTER PIB
तो आइए बाघों के बारे में और जाने:-
बाघ अपनी प्रजाति का सबसे बड़ा पशु है। इसके शरीर का रंग लाल और पीला का मिश्रण है परंतु इसकी पहचान है काले रंग की पट्टियां जो इसके पूरे शरीर पर होती है।आमतौर पर एक वयस्क बाघ 12 फीट लंबा और 300 किलोग्राम वजनी हो सकता है। बाघ का वैज्ञानिक नाम Panthera Tigris  है। बाघ शिकार के लिए सुनने के बजाय मुख्य रूप से दृष्टि और ध्वनि पर भरोसा करते हैं, वे आमतौर पर अकेले शिकार करना पसंद करते हैं। बाघ सामान्यतः दिन में शिकार करते हैं और उसका मुख्य शिकार चीतल, जंगली सूअर और गौर के बच्चे होते हैं। एक मादा बाघ हर 2 साल में 2 से 4 बच्चों को जन्म देती है किंतु उनमें से 50% बच्चे विभिन्न कारणों से वयस्क होने से पहले ही मर जाते हैं। एक वयस्क बाघ करीब 20 वर्ष तक जी सकता है।एक समय बाघों का निवास तिब्बत,श्रीलंका व अंडमान द्वीप छोड़कर संपूर्ण एशिया में था किंतु अब वे मुख्यतः 13 देशों में पाए जाते हैं जिसका करीब 70% आबादी भारत में ही है। बाघ एक अत्यंत संकटग्रस्त प्राणी है, IUCN के आधार पर इसे विलुप्त प्राय ( endangered) प्रजाति घोषित किया गया है। अब तक ज्ञात बाघों की 9 किस्मों में तीन विलुप्त हो चुके हैं। भारत में रॉयल बंगाल टाइगर ज्यादातर पूर्वी क्षेत्रों में पाया जाता है। भारत सरकार ने बाघ को राष्ट्रीय पशु का दर्जा दिया है।
GREEN HUMOUR
वर्तमान में बाघों की संख्या करीब 3900 है जो कि काफी कम है और इसका मुख्य कारण निम्न है :-
विभिन्न प्रयोजनों के लिए बाघ के अंगों की तस्करी जो कि बाघों के अवैध शिकार का कारण है .
-बाघों के प्राकृतिक निवास का लगातार कम होना मानव की जरूरतों के लिए। जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष होता है और आमतौर पर बाघों की हत्या की जाती है.
-प्राकृतिक निवास में लगातार मानव का दखल.
-जलवायु परिवर्तन का प्रभाव.
-निजी लाभों के लिए (मनोरंजन, अंगों की बिक्री आदि) बाघों को बंदी बनाकर अप्राकृतिक माहौल में रखना.

बाघ पारिस्थितिकी तंत्र और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। बाघ श्रेष्ठ शिकारी के रूप में पर्यावरण को स्वस्थ रखने में मदद करता है। पारिस्थितिकी तंत्र में अगर बाघ ना हो तो घास खाने वाले जंतुओं की संख्या बढ़ जाएगी जिससे की मानवों के लिए भोजन व जल का संकट उत्पन्न हो जाएगा। इन वजहों से बाघों का संरक्षण हमारा दायित्व एवं कर्तव्य है। पिछले चार दशकों में सरकारें और विशेषज्ञ बाघ संरक्षण की ओर छोटे छोटे कदम बढ़ा रहे हैं एवं उसी का फल है कि भारत समेत एशिया के 12 देशों में बाघों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई है। भारत में बाघ संरक्षण हेतु 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर लांच किया था और उसके बाद बाघों की संख्या का अनुमान हर साल लगाया जाने लगा। 28 जुलाई 2020 को पर्यावरण मंत्रालय ने बाघ जनगणना की डिटेल रिपोर्ट जारी की है ( चित्र संलग्न ) जिसके अनुसार भारत में वर्तमान मे 2967 बाघ हैं। पिछले 4 वर्षों में बाघों की संख्या में 741 का इजाफा हुआ है। यह खबरें थोड़ा सुकून दायक है। निकट भविष्य में बाघ संरक्षण केंद्रों में पहली बार LIDAR तकनीक से चारा और पानी का पता लगाया जाएगा ताकि मानव और बाघों के बीच झड़प कम किया जाए। इसके अलावा दुनियाभर के विशेषज्ञ और पर्यावरण प्रेमी बाघ संरक्षण के लिए लगातार प्रयासरत हैं। बाघों के प्राकृतिक आवासों को संरक्षित करने का प्रयास जारी है। कैमरा ट्रैप, जीपीएस, डीएनए सैंपलइन आदि के आधार पर बाघों और उनके शिकार पर निगरानी की जा रही है।अवैध शिकार और बाघों के अंगों के व्यापार को खत्म करने के लिए सरकार कड़े कानून बनाने को प्रतिबद्ध है। यह सब किया जा रहा है परंतु व्यक्तिगत स्तर पर हम क्या कर सकते हैं जिससे यह शानदार जीव भविष्य में धरती पर बिचरते रहे। यह सोचना हमारा काम है। कुछ सुझाव नीचे दिए जा रहे हैं:-
-बाघों के अंगों को स्टेटस सिंबल के रूप में इस्तेमाल करने के बारे में लोगों के मन को बदलने के लिए हम सोशल मीडिया पर अभियान चला सकते हैं।
-अपने मित्र मंडली में बाघ संरक्षण पर चर्चा कर सकते हैं।
-पर्यावरण मंत्रालय के अफसरों और मंत्रियों को अवैध शिकार रोकने हेतु नए विचार हम चिट्ठी या सोशल मीडिया पोस्ट के रूप में दे सकते हैं।
-बाघ के अंगों के प्रयोग से बने प्रोडक्ट को उपयोग ना करने हेतु हम पोस्टर एवं कार्टून बनाकर जागरूकता फैला सकते हैं।
प्रशांत

( यह लेख TEACHFORGREEN इन्टर्नशिप के तहत लिखा गया है जिसका उद्देश्य है बच्चों और छात्रों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करना, अगर और जानना है तो संपर्क करें )

Friday, 10 July 2020

कोरोना वायरस के चपेट में अब गांव भी


जब मैं यह सब लिख रहा हूं तब मुझे ध्यान आया कि आज से 3 महीने पहले मैं इस महामारी को कितना मजाक में ले रहा था। मैं क्या, मेरे आस पास लगभग हर कोई वायरस से होने वाले खतरों से अनजान बनने का हर संभव प्रयास कर रहा था। हर दूसरी बात में कोरोना से संबंधित मजाक शामिल था। मानो कोरोनावायरस न हुआ, हंसी ठिठोली का एक टॉपिक हो गया। इसमें दोष केवल हमारा भी नहीं था, जिस तरह से इसकी सूचना हम जैसे गांव वासियों तक फैली वह भी कुछ हद तक हास्यास्पद पर ही था। सीरियस मैटर पर किसी ने ध्यान देना उचित समझा भी नहीं। कोई चीन को कोसने में लगा हुआ था तो कोई सरकार को। बहुत से लोग थाली- घंटे बजवाने को लेकर आपस में उलझे हुए थे, लॉकडाउन तो हंसी मजाक का डोज ही लेकर आया था। लोग वास्तविक उद्देश्य को बिल्कुल ही भूल बैठे। "सोशल मीडिया और खाली समय" इन दो चीजों ने तो लोगों के उर्वर मस्तिष्क को नए-नए ज्ञान लिखने और आपस में साझा करके चर्चा करने को प्रेरित किया (प्रेरित करने से ज्यादा उचित शायद हौसला अफजाई करना रहेगा क्योंकि लोग कल्पनाशीलता के हदें पार करने लगे थे) सरकार के तरफ से भी कोई विश्वसनीय एक्शन नहीं लिया गया, केवल प्रशासन की चुस्ती दिखाने का मौका को छोड़कर। ऐसे समय में कुछ संवेदनशील लोग इस बात की चिंता करने लगे कि गरीब लोग खाएंगे क्या और प्रवासियों को होने वाली परेशानियों को कैसे कम किया जा सके ? मीडिया (खासकर टेलीविजन) अलग ही बौखलाहट में था। तरह-तरह के दावों के साथ रोज नए विशेषज्ञ अपनी राय जाहिर कर रहे थे। पत्रकार भी दक्षिण-वाम/सरकार-जनता/ विपक्ष-पक्ष मैं इतना व्यस्त हुए कि वे भूल गए कि दर्शक गण का भी अपना दिमाग होता है। दर्शकों ने भी विशेषज्ञों की बहुत सी बातों पर अमल करना शुरू किया। ऐसे में खबरें आई कि साबुन से हाथ धोते रहने से संक्रमण का खतरा कम होगा और मास्क पहनकर रहने से बचाव संभव है। लोगों ने सब कुछ किया, इसमें कोई शक नहीं पर हम जैसे लोग आखिर कब तक घर में समय काटते? धीरे-धीरे लोग महामारी को मजाक समझ ही बैठे। गौर करें पहले इस पर मजाक बनाया जा रहा था अब इसे ही मजाक समझा गया।



करीब तीसरे लॉकडाउन के शुरू होने तक नवादा जैसे जिले में गिने-चुने केस ही मिले थे और यह प्रमाणित थे। जिस इलाके में कोरोना संक्रमित मिलता उस पूरे इलाके को सील किया जाने लगा पर फिर भी जनसंख्या का बहुत ही नगण्य प्रतिशत लोग संक्रमित थे। मुंबई, दिल्ली जैसे महानगर में हालात कुछ और थी पर गांव सुरक्षित थे। ग्रामीण सुरक्षित थे, यहां तक कि शहर से आ रहे प्रवासी जिन्होंने बहुत कष्ट झेला और क्वारंटाइन सेंटर में सुविधाओं के अभाव में रहे वह भी संतुष्ट थे अपने गांव की खैरियत सुनकर। लोगों ने आपस में मिलना जुलना कम कर दिया, यहाँ तक की महापर्व छठ भी घरों में मना लिया जिसे प्रकृति से जुड़ा रहना था। इन सब के बीच कुछ लोगों को पैसा कमाने का जरिया भी मिला, सरकारी तंत्र के साथ मिलकर यह लोग भ्रष्टाचार में लगे। चाहे राशन वितरण में हो या फिर साबुन मास्क वितरण में। जिनकी जैसी मंशा थी वैसा वे कीये। किंतु सबसे अहम बात जो इन दिनों मैंने महसूस की कि बिहार जैसे राज्य में जहां उंगली पर गिने जा सकने की संख्या में बढ़िया हॉस्पिटल होने के बाद भी लोग डरे नहीं। बल्कि भरोसा जताया सिस्टम पर, डॉक्टरों और नर्सों पर। मैं तो ताज्जुब में था कि जहां सांप काटने पर अस्पताल मुहैया नहीं, जहां महिलाओं और बच्चों की जान केवल इसलिए चली जाती है क्योंकि प्रसव के वक्त उचित सुविधाएं जिसमें स्वच्छता और बिजली भी शामिल है नहीं मिल पाती है । वह राज्य कैसे हैंडल करेगा कोरोना को?? लेकिन भगवान भरोसे सबका जीवन चल ही रहा था और आगे भी चलेगा यह मानकर शायद मैं शांत हूं और लोग भी चुप है। वैसे भी बिहार जैसे राज्य में (केवल बिहार ही क्यों?) अन्य राज्यों में भी कोरोनावायरस बहुत कम किए जा रहे थे और आंकड़ों का हेरफेर जारी था। ईमानदारी तो कब का तेल लेने गई थी सो अभी तक लौटी नहीं । हम जैसे लोगों को यह बात मालूम कब से है।





राज्य की खस्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था पर मैंने पहले भी लिखा है और फिर भी लोग सवाल करने के बजाय चापलूसी और चमचागिरी में लगे हुए हैं। मैं इससे ज्यादा कर नहीं सकता हूं।
ऐसे में जब कुछ लोगों से बात करता था तो उनमें से अधिकतर लोग डरे सहमे थे,कुछ तो भगवान से मना रहे थे कि यह सब जल्द खत्म हो जाए और वापस जीवन पटरी पर लौट जाए। पटरी पर लौटने की बात से याद आया की देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उत्तर भी गई थी। हां पर्यावरण में काफी सुधार महसूस की गई। जो भी हो अभी तक गांव बचे हुए थे कोरोना से। लेकिन अभी जब मैं लिख रहा हूं तो मैं भी डरा हुआ हूं, यह डर मौत का नहीं है। यह कोरोनावायरस का अजीब सा खौफ है। कोरोना के चलते प्रशासन और लोगों की बदलते व्यवहार का खौफ है। अभी बारिश हो रहा है पर हल्का बुखार भी मुझे और मुझ से जुड़े लोगों को डरा दे रहा है। पापा को टाइफाइड हुआ है, पर लक्षणों से कोरोना लगा इसलिए कोरोनावायरस टेस्ट भी करवा लिए, लेकिन टेस्ट रिजल्ट आने तक जो बेचैनी मैंने देखी उसका खौफ है। जिस तरह से अफवाह सुनकर लोगों के व्यवहार में परिवर्तन आया उसका खौफ है। पापा 5-6 दिनों से एक रूम में रह रहे हैं, जो कि उनके स्वभाव के विपरीत है और फिर भी अपनी और औरों के सुरक्षा का ख्याल से हर निर्देश का पालन कर रहे हैं। किंतु मैं लापरवाह रहा हूं अभी तक क्योंकि अनुशासन की तिलांजलि मैंने कब का दे दिया था। 4 दिन पहले की खबर है स्टेट बैंक के कर्मचारी संक्रमित पाए गए, बैंक बंद है। बाजार के कुछ लोग भी संक्रमित हैं। बहुत से ग्रामीणों में अजीब सा भय है। कोरोना अब गांवों में फैल चुका है। अब देश सुरक्षित नहीं है ।





सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं,हाथ तो खैर पहले से खड़ा था पर अब भरोसा भी नहीं रहा। मिलकर लड़ेंगे- मिलकर जीतेंगे यह बातें अब बेमानी लगती है। प्रशासन को सख्त निर्देश मिला है कि वे इसे फैलने से रोके और यह निर्देश तब मिला है जब यह हर जगह फैल चुका है। राज्य भर में मास्क पहनना अनिवार्य कर दिया गया है, पुलिस को सख्त निर्देश दिया गया है कि जो भी बिना मास्क का मिले उसे दो मास्क दिया जाए और जुर्माना वसूला जाय। इधर देख रहा हूं कि पुलिस जुर्माना वसूलने में इतना व्यस्त है कि रसीद काट कर देना भूल जा रही है मास्क का तो कुछ अता पता ही नहीं है। इस महामारी में यह लोग पैसों को दांत से पकड़ना नहीं भूल रहे हैं पर यह जरूर चाहते हैं कि हर आदमी अपना काम धंधा छोड़ कर घर में जरूर बैठ जाए। शायद इसीलिए तो दूध बेचने जा रही है एक औरत को डंडे से पीट दिया था पुलिस ने लॉकडाउन में। खैर मास्क, सैनिटाइजर, और साबुन बनाने वाले भी अवसर देख रहे हैं और सरकार तो इस बात पर आंखें गड़ाए हुए हैं कि कब सरकारी गोदाम में गेहूं चावल सड़े उसे सैनिटाइजर बनाकर पोस्ट ऑफिस के माध्यम से बेचा जाए। इन सब के बावजूद लोगों ने यह पूछना छोड़ दिया है कि दवाई कब बनेगी और कौन बना रहा है? गांव के अस्पताल में अभी तक सुविधा क्यों नहीं पहुंची?
आज से कुछ जिलों में फिर से लॉकडाउन किया गया है।डीएम व अन्य अफसर क्या सोच रहे हैं यह मालूम नहीं पर लौकडाउन बढ़ने के पूरे आसार दिख रहे हैं। मैं यह नहीं पूछ रहा कि लॉकडाउन खोला क्यों?वह शायद हर कोई जान रहा है पर यह जरूर पूछ रहा हूं कि हमारे जान के साथ ऐसा भद्दा मजाक क्यों??

आपका प्रशांत

#DreamLibrary : Read between the lines

#DreamLibrary सीरीज की दूसरी किश्त

आज मैं बता रहा हूं एक ऐसे पुस्तकालय के बारे में जिसमें कोई मेंबरशिप की जरूरत नहीं है। कोई फॉर्मेलिटी पूरी नहीं करनी होती है। अगर आपके पास एक किताब है और आपने उसे पढ़ लिया है एवं चाहते हैं कि कोई और भी उसे पढ़े तो गुरु ग्राम के हुड्डा सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन पर आपके लिए उपलब्ध है एक लाइब्रेरी जो आपको मौका देगा अपनी पुरानी किताब के बदले दूसरी किताब को पढ़ने के लिए।


Welcome Open for All Metro Library-4
तस्वीर साभार गूगल से 

Read between the lines नाम का यह छोटा प्यारा सा पुस्तकालय है जिस में भांति भांति के पुस्तकें उपलब्ध है।आइडिया केवल इतना है कि आप अपने पड़े हुए पुस्तक को वहां रखकर बदले में दूसरी कोई भी पुस्तक उठा सकते हैं। अगर आप रोजाना पढ़ने के शौकीन हैं और प्रतिदिन मेट्रो सफर करते हैं तो इस पुस्तकालय का लाभ लेना ना भूले।

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तस्वीर : कादंबरी की गूगल से प्राप्त 

वैसे जब मैं दिल्ली में था हुड्डा सिटी सेंटर मेट्रो करीब चार-पांच बार गया था पर इस पुस्तकालय में मात्र एक ही बार जा पाया था। कमाल का कांसेप्ट है पुस्तक प्रेमियों के लिए।

तो कैसा लगा आप सब को यह जानकारी।
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