Saturday 26 June 2021

#GreenLungs : हरियाली और हम


# GreenLungs 





पर्यावरण, पर्यावरण संरक्षण जैसे शब्दों से मेरा, आपका और बाकि लोगों का नाता भले ही कुछ दशकों का हो किन्तु यह मौजूद था आदमी के पहले से। ( पर्यावरण क्या है और क्यों जरुरी है इसके लिए निचे विकिपीडिया का लिंक दिया गया है , आप सभी पढ़े ) पर्यावरण संरक्षण आज के समय की मांग है। प्रकृति ने सब कुछ अपने नियत समय पे उचित जगह पे स्थापित कर रखा था और यह प्रयास निरंतर जारी है वो तो आदमी के लालच और नई सोच ने विकाश के नाम पर प्रकृति से खेलवाड़ करना शुरू किया और सारे पारिस्थिकी तंत्र को चौपट कर दिया है, पर्यावरण आदमी के लिए जरुरी है यह जानकारी होने के बाद लोगों को पेड़-पौधे लगाने का सलाह दिया जाने लगा और इस सलाह को न मानने की पूरी छूट भी दी गयी। बढ़ते प्रदुषण और वनों की अंधाधुंध कटाई ने लोगों को एहसास दिलाया की जो हो रहा है वह सही नहीं है। पिछले कुछ महीनो में ऑक्सीजन की महत्ता को अनपढ़ और अनजान लोगों तक पंहुचा दिया है , इन समस्याओं से बचने के कई उपाय है और हम-आप जैसे लोगों के लिए सबसे सरल उपाय है पेड़ लगाना, वृक्षारोपण करना।  हम नए युग के लोगों के लिए ये एक नया अनुभव हो सकता है किन्तु  भारत जैसे देश के ग्रामीण हमारे पूर्वजों ने वृक्षों से दोस्ती करना बहुत पहले सीख लिया था। घर के एक हिस्से में घेवारी ( बगिया ) लगाना वे कभी नहीं भूलते थे. गांव का चौपाल अक्सर पीपल, नीम और बरगद जैसे पेड़ों के निचे ही लगता था ( अभी भी कई गांव ऐसे ही मिलेंगे ) मंदिरों में फूलों की तरह-तरह की किस्मे लगे रहते थे और हैं भी। खैर ज्यादातर फलदार वृक्षों जैसे की आम, अमरुद, निम्बू, शरीफा (सीताफल ), अमला , जामुन,महुआ , कटहल आदि आदि पेड़ लगाए जाते थे जो क्षेत्रवार बदल दिए जाते थे।  इधर कुछ वर्षों में लकड़ी के लिए प्रसिद्द पेड़ों की रोपाई खेतों में की जाने लगी है जैसे शीशम , सागवान , लिप्टस , महोगनी इत्यादि। विद्यालय और सरकारी परिसरों में अशोक, नारियल जैसे शो प्लांट लगाए जाते है। शहरों में जागरूक परिवार गांव की तरह तुलसी भले न लगा पाते हों किन्तु एलोवेरा, बोन्साई ,स्नेकपलांट , मनीप्लान्ट आदि लगाना नहीं भूलते हैं। ये सब लिखने से मेरा तात्पर्य है आपको याद दिलाना की हमलोग पेड़ पौधों से काफी गहरे ढंग से जुड़े हुए है। प्रकृति से नाता पुराना है किन्तु नयी पीढ़ी इनसे थोड़ा दूर जाते प्रतीत होती है। देशभर में वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने के लिए समय समय पर कार्यक्रम/सेमीनार आयोजित है , बहुत से गैर सरकारी संस्थान भी लोगों में जागरूकता बढ़ाने का प्रयास कर रही है। लोग स्वयं भी अब आगे आ रहे हैं और अपने आसपास खाली  जगह देखकर पेड़ लगाने का प्रयास करते हैं , शहरों और कई गांवों में व्यावसायिक नर्सरी इस बात की बानगी प्रस्तुत करता है।  स्कूलों में बच्चों को यह सब क्यों जरुरी है यह पढ़ने के लिए किताबों में पाठ रखे गए हैं। 



रजौली में मेरा घर 

रजौली का देवी मंदिर : आँगन में पेड़ 



























8 साल पुरानी फोटो : छत पर गमले 

एक गांव में हरियाली 



मेरा भी पौधों से काफी लगाव रहा है , कुछ तो पारिवारिक पृस्ठभूमि और बचपन के दिनों की देन है और कुछ स्कूल के पर्यावरण पाठ के साथ मौजूदा हालत की देन है। जहाँ भी रहा हूँ अलग अलग तरह के वृक्षों को लगाते रहा हूँ और देखभाल भी सपरिवार करता रहा हूँ।  दोस्तों के बीच इस सम्बन्ध में बातचीत होती रही है और दोस्त भी पेड़ों के महत्त्व देने में पीछे नहीं रहे। फलदार पौधे घर के आसपास लगाने का प्रयास हमलोग हर साल करते आये है और कुछ पौधों को नए दोस्तों को देते रहे है। फूल वगरैह तो माँ ही आसपास में बाट देती है और वे अपना सुगंध एक घर से दूसरे घर में पहुंचाते जाते हैं। छत पर बागवानी बढ़िया कांसेप्ट है और हमारे आसपास सभी महिलाये अपने घरों के छत पर थोड़ा जगह तो गमलों के लिए देती ही है। संयोगवश प्रयोग करने के लिए दश -बारह साल पहले एक घर का खाली हिस्सा मिला और कई पेड़-पौधों से हरियाली भरी हुई बरसात हम हर साल देखते हैं इधर २-३  से सरकारी नर्सरी से हम कुछ नए पौधे भी ले आते हैं जो की वहां १० रूपये में मील जाया करता है। आसपास के दोस्तों में कुछ बाटा जाता है और कुछ अपने घर में।  इसी क्रम में मैंने और रोहित ने इसे एक अभियान बनाने का सोचा नाम दिया गया #GreenLungs - सोशल मीडिया पर इसी नाम से हैंडल है  मकसद  केवल इतना है की हमारे ही तरह और लोग अपने आसपास पौधों को लगाए और बढ़िया से देखभाल करे।   देशभर में लोग वृक्ष लगाने का प्रयास कर रहे है और सफल भी 


पिछले साल : #GreenLungs के लिए पौधे लेते हुए 

वन विभाग कार्यालय रजौली 


आज का पौधरोपण 


तो आईये मित्रों, जुड़े रहिये प्रकृति से और अपने अभियान से। 

( इधर कुछ दिनों से व्यस्तता के कारण ब्लॉग पे नियमित नहीं था, किन्तु आशा करता हूँ आप सबको आज का यह ब्लॉग पढ़ने में आनंद आया होगा। )

आभार 

प्रशांत 

- https://www.facebook.com/greenlungsmovement/videos/what-is-greenlungs-movement-a-message-to-all-nature-lovers-by-prashantgreenlungs/746743025986245/

https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3

Tuesday 30 March 2021

ककोलत जलप्रपात : बिहार का कश्मीर


ककोलत एक ऐसा नाम जो नॉस्टैल्जिया बन चुका है अब। जो लोग नवादा के रहने वाले हैं या बिहार से जुड़े हैं उन्हें बताने की जरूरत नहीं कि ककोलत क्या है, पिछले कुछ वर्षों में जब भी बिहार और पर्यटन का नाम साथ में आता है तो ककोलत जलप्रपात का नाम जरूर लिया जाता है । बिहार के नवादा जिले में गोविंदपुर विधानसभा के अंतर्गत आता है एकतारा गांव और उसी गांव के आसपास सुरम में पहाड़ियों के बीच में एक बड़ा ही मनोरम झरना है इसे बिहार का कश्मीर भी कहा जाता रहा है नाम हुआ ककोलत जलप्रपात। जिला मुख्यालय नवादा से 33 किलोमीटर दूर, एनएच 31 (फतेहपुर मोड़) से करीब 16-17 किलोमीटर दूर यह जलप्रपात ठंडे पानी का झरना है जिसकी ऊंचाई करीब 160 फुट है लेकिन प्रसिद्धि में इसका नाम काफी ऊंचा रहा है। हरे भरे पहाड़ों के बीच में यह झरना न केवल गर्मियों में लोगों को राहत देती है बल्कि आंखों को भी ठंडक पहुंचांती है। झरने में साल भर ठंडा पानी बहता रहता है जो कि नीचे एक विशाल जलाशय में जमा होकर फिर नीचे गांव की ओर बह जाती है लेकिन ककोलत जलप्रपात में सैलानी फरवरी से आना शुरू हो जाते हैं जो कि बरसात आने तक लगातार आते ही रहते हैं। इस इलाके में आने मात्र से ही ठंडक महसूस होने लगती है एक अजीब तरह की संतुष्टि मिलती है जिसका वर्णन केवल वहां जाकर ही किया जा सकता है शब्दों में करना मुश्किल है। स्थानीय लोग और दूर-दूर के सैलानी अपने प्राइवेट वाहनों से परिवार के साथ पिकनिक मनाने के लिए आते हैं और झरने के शीतल जल में स्नान करके स्वयं को तृप्त करते हैं। लोगों के मानस में रचा बसा झरना उनके मन मस्तिष्क में एक मीठी याद बनकर रहती है। ककोलत जलप्रपात न केवल पर्यावरण के रूप से महत्वपूर्ण है बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी जिले में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।







इस झरने के संबंध में एक पौराणिक आख्‍याण काफी प्रचलित है। इस आख्‍याण के अनुसार त्रेता युग में एक राजा को किसी ऋषि ने शाप दे दिया। शाप के कारण राजा अजगर बन गया और वह यहां रहने लगा। कहा जाता है कि द्वापर युग में पाण्‍डव अपना वनवास व्‍यतीत करते हुए यहां आए थे। उनके आशीर्वाद से इस शापयुक्‍त राजा को यातना भरी जिन्‍दगी से मुक्‍ित मिली। शाप से मुक्‍ित मिलने के बाद राजा ने भविष्‍यवाणी की कि जो कोई भी इस झरने में स्‍नान करेगा, वह कभी भी सर्प योनि में जन्‍म नहीं लेगा। इसी कारण बड़ी संख्‍या में दूर-दूर से लोग इस झरने में स्‍नान करने के लिए आते हैं। वैशाखी और चैत्र सक्रांति के अवसर पर विषुआ मेले का आयोजन किया जाता है।इस अवसर पर अनेकों गाँव तथा अन्य लोग भी यहाँ आते है। इस मेला को ककोलत आने का औपचारिक शुरूआत भी माना जाता है,,क्योंकि यह गर्मी के शुरूआत में मनाया जाता है। (Wikipedia से)


ककोलत जलप्रपात हाल के वर्षों में अपनी बदहाली पर भी रो रहा है। ककोलत जलप्रपात के प्रसिद्धि के कारण मुख्य धारा के सैलानी लगातार बड़ी संख्या में हम पहुंचने लगे हैं ऐसे में मूलभूत सुविधाओं के अभाव में उन्हें काफी परेशानी हो रही है। साफ सफाई एवं सुरक्षा तो मुख्य मुद्दा रहा ही है लेकिन महिलाओं के लिए एक चेंजिंग रूम का मांग कई वर्षों से जारी है वहीं दूसरी ओर ककोलत में टॉयलेट की सुविधा अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाई है जोकि एक मूलभूत आवश्यकता है।स्थानीय लोग तथा सैलानी सोशल मीडिया पर इस संबंध में लगातार आवाज उठाते रहे लेकिन प्रशासन और सरकार के दिलासा के अलावा ककोलत को कुछ नहीं मिल पाया है। अभी 2 वर्ष भी नहीं हुए जब बिहार सरकार एवं जिला प्रशासन ने ककोलत को ईकोटूरिज्म हॉटस्पॉट बनाने का भरोसा दिया था जिससे कि स्थानीय लोगों के जीविका में सुधार होता एवं युवाओं को रोजगार मुहैया होता किंतु इस और प्रयास बिल्कुल भी नहीं किया गया खैर इन सब के बावजूद ककोलत का आकर्षण हमेशा ही बना रहता है और बना रहेगा।
जो लोग पहले कभी भी ककोलत नहीं आ पाए हैं उनके लिए निम्न मार्ग है-
वायु मार्ग
यहां का निकटतम हवाई अड्डा गया में है। लेकिन यहां वायुयानों का नियमित आना जाना नहीं होता है। इसलिए वायु मार्ग से यहां आने के लिए पटना के जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा आना होता है। यहां से सड़क मार्ग द्वारा ककोलत जाया जा सकता है।

रेल मार्ग
नवादा में रेलवे स्‍टेशन है जो गया - क्यूल रेलखंड से जुड़ा हुआ है। गया जंक्‍शन रेल मार्ग द्वारा देश से सभी शहरो से जुड़ा हुआ है। कोडरमा स्टेशन से भी बस पकड़ कर थाली मोड़ आया जा सकता है।

सड़क मार्ग
राष्‍ट्रीय राजमार्ग 31 पर स्थित होने के कारण ककोलत देश के सभी भागों से सड़क मार्ग द्वारा अच्‍छी तरह से जुड़ा हुआ है। फतेहपर से 18 किलोमीटर की यात्रा में 15 किलोमीटर तक सार्वजनिक वाहन मिल जाते है,,आखिर के तीन किलोमीटर जो थाली मोड़ से शुरू होता है।


ककोलत जलप्रपात से जुड़ी यह जानकारी आपको कैसी लगी आप मुझे कमेंट बॉक्स में बताएं या फिर ईमेल करें। साथ ही ककोलत के साथ जुड़े आपके यादों को भी मैं पढ़ना चाहूंगा समझना चाहूंगा आप चाहे तो उसे भी बता सकते हैं। आपका प्रशांत

 

Sunday 28 March 2021

बिहारीपन पर एक टिप्पणी मेरी ओर से

 



लोगों ने हर चीज को अपने हिसाब से बदलने का स्वभाव बना रखा है, खैर इस पर कोई क्या कर सकता है जो आप खुद ही नहीं चाहे की प्रगति हो और दिखावा भी करें कि समाज का विकास हो तो संभव है की दूध से दही तो बन जाए किंतु घी निकालना मुश्किल है।

लोगों ने बिहार को एक अलग ही मानसिकता से ग्रसित प्रदेश मान लिया है बिहारी होना अब गर्व का बात तो है किंतु यह एक अलग ही रूप लेता नजर आ रहा है।
खैर यह सब बहुत बड़ी बातें हैं किंतु पिछले कुछ दिनों के घटनाओं से मैं थोड़ा अप्रसन्न हूं। लेकिन मेरे अकेले के अप्रसन्न होने से क्या हो जायेगा? 11 करोड़ से ऊपर की जनसंख्या है बिहार की एक आध हजार लोग अप्रसन्न है भी तो कोई बड़ी बात नहीं । लेकिन इन घटनाओं की वजह से बिहारी समाज का असली चेहरा बाहर वालों के बीच में आ रहा है और वह सोचते हैं कुत्ता का पूंछ टेढा का टेढा ही रहेगा।
भागलपुर विश्वविद्यालय में एक प्रोफ़ेसर को स्थानीय गुंडों ने या कहूं प्रगतिशील लोगों ने अकारण ही पीट दिया हैरत की बात यह है कि यह सब बिहार बंद के नाम पर किया गया है और बंद का सबसे बड़ा समर्थक विश्वविद्यालय के छात्र ही होते है किंतु अगर विश्वविद्यालय बंद का समर्थन नहीं कर रहा तो समझिए कि बंद का कारण सही नहीं है या सही से समझ नहीं पा रहे हैं। वहां पर उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह बंद का कारण समझाएं और उन्हें साथ में ले ना कि अहिंसा का प्रयोग कर माहौल को और बिगाड़े। खैर उन्हें समझाना मतलब गोइठा में घी सुखाना है लेकिन बिहार के अन्य लोग क्यों चुप है इस मामले में?
बिहार के 38 जिलों में दो-तीन जिले ही थोड़ा सा राजनीति और समाज को साथ लेकर आगे बढ़ रहे हैं बाकी सब तो खाने कमाने में ही व्यस्त हैं और उन जिलों में भागलपुर का नाम आता है भागलपुर विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर अगर मुंबई से नौकरी छोड़ कर के पढ़ाने आ रहे हैं तो समझिए कि समाज में बदलाव की बयार आई है किंतु उस प्रोफेसर के साथ ऐसा बर्ताव होने के बाद भी अगर लोग चुप हैं तो समझिए कि समाज भी दिखावा करने में माहिर है जिधर ज्यादा फायदा उधर का समर्थन बंद हो या विधानसभा में हो-हल्ला वे अपने स्तर पर तय करते हैं कि किस को समर्थन देना है चलिए यह भी ठीक है लेकिन एक बात तय मानिए कि यह सब बिहार की छवि को और बिहार के भविष्य को दांव पर लगाता है।
प्रशांत

Saturday 1 August 2020

प्रकृति का प्रिय राज्य झारखण्ड : एक रिपोर्ट


2018 koderma ghati

  

झारखंड अपने विशाल जंगलों के लिए  जाना जाता है। झारखंड का नाम ही इसलिए पड़ा क्योंकि इसके हर हिस्से में जंगली झाड़ उपलब्ध है। वैसे तो सम्पूर्ण झारखण्ड पेड़, पौधो और कई प्रकार के संख्या में कम बचे जीव जन्तुओ से पटा पड़ा है पर सरकार की उम्दा कोशिशो से कुछ स्थानो को बहुत पहले हीं संरक्षित करने का कार्य शुरु कर दिया गया था जिसके कारण इन वन अभ्यारणों की खूबसूरती बरकरार हैं। ये जंगल झारखण्ड को प्रकृति की और से उपहार है, इसके जंगलों में तरह तरह के वनस्पति और प्राणियों का निवास है, डाटा रिपोर्ट्स के अनुसार करीब दो सौ प्रकार के पंक्षियों का बसेरा है झारखण्ड। मुख्य वनस्पति प्रकार है : कटहल , केन्दु ,महुआ , शीशम , गंभार, बहेड़ा , जामुन, कथा , लाख आदि वहीँ राज्य में हाथी, लोमड़ी, गौर, सियार, बाघ ,लंगूर, हिरण, पाइथन,खरगोश , नीलगाय ,जंगली बिल्ली आदि वन प्राणियों का निवास है।

झारखण्ड के उद्यानों और संरक्षित क्षेत्रों की बात करें तो पलामू ( डाल्टेनगंज ) का बेतला नेशनल पार्क और हज़ारीबाग़ नेशनल पार्क का जिक्र आता है। इसके अलावा कोडरमा घाटी, सिंहभूम और अन्य जिलों में भी छोटे उद्यान हैं। पलामू को तो झारखण्ड का बाघ जिला भी कहा जाता है किन्तु इस साल के रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड में बाघों की संख्या काफी कम रही जो कि पर्यावरण प्रेमियों के बीच चिंताजनक स्थिति पैदा कर रही है। कई विशेषज्ञ तो ये कह रहे हैं की पलामू में एक भी बाघ नहीं बचा है।

Petition · Re evaluate this Jharkhand: Almost 3.5 Lakh Trees to Be ...


खनिज और वन संपन्न राज्य झारखण्ड का शाप 

झारखंड राज्य छत्तीसगढ़ के बाद देश में खनिज संपदा का प्रमुख उत्पादक है। देश के कुल खनिजों का 40% इस राज्य से पूर्ति होती है। जबकि कोकिंग कोयला, यूरेनियम और पायराइट उत्पादन करने वाला एकमात्र राज्य है। भारत में कोयला, अभ्रक, तांबे और क्राय नाइट के उत्पादन में पहले स्थान पर है। झारखंड राज्य का अर्थव्यवस्था और उद्योग धंधा काफी हद तक राज्य के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर निर्भर करता है और शायद इसीलिए झारखंड को संसाधन शाप को भी भुगतना पड़ा है।
जहां एक ओर यह राज्य अपने प्रकृति को छेड़छाड़ करके देश को खनिज संसाधन उपलब्ध कराता है वही दूसरी ओर राज्य की करीब आधी जनसंख्या गरीबी का दंश झेल रही है और 5 साल उम्र से नीचे के बच्चों की पूरी संख्या का करीब 20% कुपोषित है। भुखमरी और गरीबी यह दो कारण है जो मानव को कोई भी कार्य करने पर विवश करता है। UNDP और oxfam poverty and human development की 2015-16 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के आधे से ज्यादा गरीब बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बसते हैं। हालांकि झारखंड में 2005-06 के मुकाबले 2016 में MPI (MULTIDIMENSIONAL POVERTY INDEX) 74.9% से घटकर 46.5% हुआ है। किंतु फिर भी झारखंड देश के सबसे अधिक संसाधन संपन्न राज्य होने के बाद भी गरीबी का दंश झेल रहा है। MPI ना केवल आर्थिक गरीबी को मापता है बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण, बाल मृत्यु, प्राथमिक विद्यालय में अटेंडेंस, स्वच्छता, पेयजल, बिजली को भी पैमाना मानकर रिपोर्ट तैयार करता है और इन सबको हम अगर झारखंड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह बात छुपाई नहीं छुपता है की खनिजों , प्राकृतिक संसाधनों और आदिवासियों की यह भूमि अपने निवासियों को यह सब उपलब्ध कराने में असमर्थ रहा है और असफल हुआ है।

एक छोटी सी कहानी से यह बात हम सब समझ सकते हैं:-
नीरज मुर्मू एक गरीब आदिवासी परिवार में पैदा हुआ जहां उसे दिन भर में मात्र एक बार भोजन नसीब होता था। जब तक नीरज 9 साल का नहीं हुआ तब तक परिवार उसके पिता ही अकेले चलाते थे। गरीबी की वजह से उसकी मां और नीरज पास के खदान में काम करने लगे थे। ऐसे में नीरज का स्कूल जाना संभव नहीं हुआ था और ना ही स्वच्छता शुद्ध पेयजल, बिजली आदि की सुविधा पाना। नीरज और उस जैसे अन्य बच्चों के लिए संसाधनों की यह भूमि झारखंड नर्क समान है क्योंकि चंद रुपयों के लिए केवल उनके माता-पिता बल्कि समाज, उद्योगपति और सरकारी सिस्टम नीरज जैसे बच्चों को कोईला या अभ्रक  खदान में उतार देते हैं। बचपन से ही फेफड़ों और श्वसनतंत्र में बीमारियां घर करने लगती है और इस वजह से बाल मृत्यु दर बढ़ता है। खदानों में विस्फोट लापरवाहीओं के वजह से जाने कितने ही बच्चे काल कवलित हो जाते हैं। प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस राज्य में नीरज जैसे लाखों बच्चों को अपना बचपना खोना पड़ता है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि 2016 REUTERS रिपोर्ट के मुताबिक खदान में जो बच्चे मरते हैं उनकी गिनती इसलिए नहीं की जाती है ताकि बाल मृत्युदर को कम रखा जाए। वही दूसरी बात जो ध्यान देने योग्य और चिंताजनक है वो है चौदह वर्ष से कम उम्र लड़कियों की स्थिति। उन्हें न केवल घर संभालना पड़ता है बल्कि कठोर मेहनत करनी पड़ती है कुछ पैसे कमाने के लिए और पेय जल लाने के लिए।

राज्य में आदिवासियों की स्थिति

झारखंड राज्य में करीब 32 जनजातियों का निवास है। जिनमें मुख्य हैं मुंडा, संथाल, उरांव, गोंड, कोल, कवर, सबर, बैगा, चेरो, हो, कोरबा आदि। राज्य में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या करीब 26% है। इनमे से ज्यादातर गांव में बसते हैं। ये कृषि, जंगल, आखेट, आदिवासी कला, माइनिंग से जीवन निर्वाह करते हैं। इनमें से अधिकतर की अपनी संस्कृति और भाषा है। बहुत सी जनजातियों की जीवन शैली अभी तक प्रकृति पर निर्भर है। वस्तुतः भूमि और जंगल को नुकसान पहुंचाए बिना जीवन यापन करने में विश्वास रखते हैं परंतु इधर के कुछ दशकों में इन आदिवासियों को अपनी जमीन को खोना पड़ा है जिसका मुख्य कारण औद्योगिकीकरण है। इन वजह से पलायन आदिवासियों का सच बन गया है आदिवासियों को बाहरी लोगों से भी परेशान होना पड़ा है। व्यापक खनन ने घने जंगलों और उपजाऊ कृषि भूमि को नष्ट कर दिया, जो आदिवासी आत्मनिर्भर थे उन्हें कांटेक्ट लेबर. कुली, कंस्ट्रक्शन वर्कर और घरेलू दाई के रूप में काम करने को मजबूर होना पड़ा। जो आदिवासी अपने बच्चों को  हजारों साल पुरानी उच्च संस्कृति और समाज का हिस्सा बनाए हुए थे उन्हें अब अपने बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा का ख्याल नहीं रहा। मां समान जंगलों से निकलकर शहरों में पलायन करना पड़ा।

प्रशांत



REFERANCES : 

1 )   https://www.financialexpress.com/economy/jharkhand-lifts-most-people-out-of-poverty-still-remains-among-poorest-states/1644302/#:~:text=Eastern%20state%20Jharkhand%20has%20made,2016%2C%20The%20Indian%20Express%20reported.

2  ) https://www.reuters.com/article/us-india-slavery-mica/with-new-data-india-plans-to-fight-child-labor-in-mica-mines-idUSKBN1O41EU

 3 ) https://www.businesswireindia.com/sustainable-mica-policy-and-vision-prepared-by-responsible-mica-initiative-with-jharkhand-government-and-civil-society-support-68955.html

 4 ) https://en.wikipedia.org/wiki/Jharkhand#Education

5 )  https://www.mapsofindia.com/jharkhand/geography-and-history/flora-fauna.html

6 ) https://www.telegraphindia.com/jharkhand/tigerless-palamau-reserve-to-celebrate-global-tiger-day/cid/1787479